18 मई की खबर है कि इस्लामाबाद के इंडियन हाई कमीशन में सेक्रेटरी के पद पर कार्यरत माधुरी गुप्ता को 2010 के जासूसी केस में 3 साल की सज़ा सुनाई गई है। 2010 में जब ये केस सामने आया तो मीडिया की सनसनीखेज़ खबरें चालू हो गयी। सनसनीखेज़ तो बहुत थी, पर मार दो काट दो जैसा कुछ नही था। तब भी, और आज भी मैं सोचती हूं कि माधुरी गुप्ता अगर मुसलमान होतीं तो क्या होता।
आज पाकिस्तान का नाम आते ही मुसलमानों से जोड़ दिया जाता है। आजकल तो ये आम सी बात हो गयी है। जिन्नाह की तस्वीर वाले, हाल ही के मामले में ये खूब देखा गया है। आज जब कोई भी बहस होती है, दोस्तों में भी, देश की राजनीति या देश और उसकी प्रणालियों पर, तो सबसे पहले तो सारी ताकत लगाकर अपने आपको मुझे देश प्रेमी सिद्ध करना पड़ता है तब कहीं जाकर कोई बात हो पाती है।
मुसलमान होना आज अपने आप में माइनस पॉइंट हो गया है किसी भी रैशनल डिबेट में हिस्सा लेने के लिए। पहले से ही ज़हन में तैयारी कर लेते हैं कुतर्कों को झेलने के लिए। चाहे मुद्दा कोई भी हो , उन आतंकवादियों का नाम, जो कि मुसलमान थे, आना ही आना है, जैसे कि हम मुसलमानों को बड़ा फक्र है आंतकवाद पर। बात कुछ और होगी, तर्क कुछ और ही आएगा। बात अगर माया कोडनानी पर हो तो ज़िक्र कसाब का आएगा। बात अगर कश्मीर में हिंसा की हो तो बात अफज़ल गुरु पर चली जाएगी। जैसे कि एक ऑटोमेटिक स्विच हो जो मुसलमान शख्स को देखते ही दब जाता हो और मुद्दा कुछ का कुछ बन जाता है।
कभी तो लगता है अपने ही मित्रों के लिए लोग इतना ज़हर कहां से ले आते हैं! मतलब ये कि घूमने फिरने, खाने पीने, गप्पे लड़ाने तक तो सब ठीक है, पर अगर आप मुसलमान हैं और एक जागरूक नागरिक की तरह देश मे राजनीति, अर्थनीति और सामाजिक चर्चा पर बात कर रहे हैं तब तो मुश्किल होगी, क्योंकि पहले आपको अपना देश प्रेम सिद्ध करना होगा, फिर कुतर्कों को झेलना होगा तब कहीं जा कर कोई बात होगी।आखिर में आपकी बात आधे मन से सुनने के बाद एक अजीब सी टिप्पणी कर दी जाएगी।
आज लगता है कितनी अच्छी बात है कि माधुरी गुप्ता मुसलमान नहीं है वरना कुतर्कों की लिस्ट में एक और नाम जुड़ जाता। और जब ना तब किसी भी बहस में मेरे मुह पर मारा जाता। आज कोई न्यूज़ एंकर चिल्ला चिल्ला कर बड़ी ही चतुराई और अाक्रामकता से मुसलमान समाज पर सवाल उठा रहा होता और देशद्रोहियों को फांसी देने की पैरवी कर रहा होता। फेसबुक और ट्विटर पर, देशद्रोह से बड़ा कोई जुर्म नहीं, का राग फैला होता और कहा जाता कि इसकी सज़ा सिर्फ और सिर्फ मौत है।
मेरे मित्रों को फिर एक और कुतर्क मिल जाता हर बार इस्तेमाल करने के लिए। फिर मुझे एक बार और देशभक्ति साबित करनी होती फेसबुक और ट्विटर पर, ऐसे देशद्रोही जो मुसलमान है उनका अनिवार्य रूप से खंडन करके। शुक्र है आज ऐसी कोई अनिवार्यता महसूस नहीं हुई।
ये सब सोच कर लगता है कि किसी भी मुद्दे के प्रति हमारा रिएक्शन हमारी साम्प्रदायिक सोच पर निर्भर है। कोई भी रिएक्शन यूनिफार्म नही है, अब हर रिएक्शन साम्प्रदायिक भावानुसार बदल जाता है। आज साम्प्रदायिक माहौल और सोच का ये असर है कि मैं बहुत सुकून में हूं कि माधुरी गुप्ता मुसलमान नहीं!