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“मीडिया ने समय रहते अपनी भूमिका तय नहीं की तो बाज़ार उसे घास बनाकर चबा जायेगा”

देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक विकास में मीडिया की महती भूमिका होती है। समाज को जागरूक करना, नैतिक मूल्यों को स्थापित करना, भ्रष्टाचार पर प्रहार करना, आम पाठकों की चेतना को झकझोर कर जनमत का निर्माण करना, निष्पक्ष व निर्भीक रहकर सच को उद्घाटित करना पत्रकारिता के दायित्व हैं।

मीडिया जनसंचार का सबसे सशक्त माध्यम होता है। इसका असर देश की राजनीति और समाज के विकास पर व्यापक रूप से पड़ता है। मीडिया की ज़िम्मेदारी है कि वह लोकजीवन की व्यथा एवं उसकी त्रासदी की सही तस्वीर पेश कर आम आदमी की आवाज़ सरकार तक पहुंचाए। लेकिन क्या वर्तमान दौर में ऐसा हो पा रहा है।

इसका जवाब हां और ना दोनों में दिया जा सकता है। कई मोर्चों पर मीडिया का स्याह पक्ष और घनघोर दिखने लगता है, तो कई बार मज़बूती व ईमानदारी के साथ अपनी भूमिका निभाता प्रतीत होता है। मीडिया अपने ऊपर लगे धब्बे को धोने में अन्ना आंदोलन के समय कामयाब हुआ था। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ी गयी इस लड़ाई के दौरान मीडिया की भूमिका जनपक्षधरता वाली रही। लेकिन आवारा पूंजी उसे आम-अवाम के साथ खड़े होने ही नहीं देती है।

मीडिया मतलब लोकतंत्र का चौकीदार, बेज़ुबानों की आवाज़, चौथा स्तम्भ, अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम, निडर व निष्पक्ष आदि-आदि। वर्तमान संदर्भ में ये सारे शब्द अब अपनी चमक खो रहे हैं। जिस दौर से आज की पत्रकारिता गुज़र रही है, वह मिशनवाली पत्रकारिता को नकारता ही नहीं, धिक्कारता भी है। गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, प्रभाष जोशी की पत्रकारिता निरंकुश सत्ता से टकराती थी, ना कि उसकी चिरौरी करती थी और तलबे चाटती थी।

जब से मीडिया ने इंडस्ट्री का रूप धारण किया है, मीडिया के मायने ही बदल गये हैं। सारे मानक, मूल्य ध्वस्त हो गये। बाज़ार पर टिकी अर्थव्यवस्था व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रहे नित्य नये-नये प्रयोग के चलते मीडिया जनोन्मुखी नहीं, बाज़ार उन्मुखी होकर रह गया है। बाज़ार ने उसे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है। आज के मीडिया से व्यापारिक लाभ-हानि की उम्मीद तो की जा सकती है, लेकिन जनसरोकार वाली पत्रकारिता की नहीं। आज मीडिया का उद्देश्य लाभ कमाना है। इसमें खबरों से ज़्यादा विज्ञापन उत्पाद हैं। मीडिया उच्च वर्ग के पक्ष में सहमति निर्मित करने का सबसे कारगर औजार बन गया है।

नाॅम चाॅमस्की के अनुसार, ‘सहमति निर्माण करने और जनमन का नियंत्रण करनेवाला औजार है।’ 19वीं सदी में ही एक फ्रेंच उपन्यासकार ने व्यवसाय बन चुकी पत्रकारिता के बारे में कहा था कि दरअसल वह ‘मानसिक वेश्यालय’ होती है, जिसमें पत्र मालिक ठेकेदार होते हैं और पत्रकार दलाल। आज मीडिया का लगभग यही हाल हो रहा है। इसे निकट से जाननेवाले मानते हैं कि यह नरक बन गया है, फैशन व ग्लैमर से चमचमाता एक नरक। (1) तेज़ी से बदल रही दुनिया के साथ कदमताल करते जनसंचार माध्यमों के सामने आज कई गंभीर चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में आज के समय में मीडिया की भूमिका को तलाशने की ज़रूरत है।

वैश्विक गांव बन चुकी दुनिया में एक-एक आदमी उपभोक्ता बन चुका है। 90 के दशक के बाद भूमंडलीकरण की ऐसी हवा बही कि आम आदमी की निहायत निजी जिंदगी व दैहिक-मानसिक वृत्ति भी बाज़ार के हवाले चली गयी। बड़ी चालाकी से बाज़ार के धुरंधरों ने पहले अपने व्यापार के विस्तार के लिए ज़मीन तैयार की उसके बाद हमारी भावनाओं व संवेदनाओं को भी उत्पाद बनाकर बाज़ार में उतार दिया। बाज़ार जितना बड़ा होगा, विज्ञापन की संभवानाएं भी उतनी ही बड़ी होंगी।

“पत्रकारिता वास्तव में विज्ञापन के व्यवसाय का दूसरा नाम है।” टाइम्स आॅफ इंडिया के विनीत जैन ने अपने एक इंटरव्यू में ये कहा था कि वे न्यूज़ के व्यवसाय में नहीं है, बल्कि वे विज्ञापन का व्यवसाय करते हैं। (2) विज्ञापन और उससे ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाने की प्रवृति ने लोकतंत्र के लिए पत्रकारिता करनेवाले संस्थानों को पत्रकारिता के लिए कारोबार करनेवाले संस्थानों में परिवर्तित कर दिया है। कल तक पेट्रोल व मोबाइल बेचनेवाली कंपनियां आज अखबार निकाल रही हैं, समाचार चैनल चला रही हैं। कुल मिलाकर प्रिंट व इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पर काॅरपोरेट घरानों का कब्ज़ा हो गया है। बाज़ार अपना होगा, वस्तु (प्रोडक्ट्स) भी अपनी और विज्ञापन भी अपने ही समूह के अखबार व चैनल पर होगा। पूंजी का यह मायाजाल मीडिया को सोचने पर मजबूर कर रहा है कि आज उसकी भूमिका क्या रह गयी है। असत्य के धरातल पर सत्य का उद्घाटन करना आज बड़ा कठिन कार्य हो गया है। बाज़ार की इस चालाकी पर गौर करें तो सारा माजरा समझ में आ जाता है कि कैसे न्यूज़ व व्यूज़ को उत्पाद बनाकर आकर्षक ढंग से पेश करने का सारा खेल चल रहा है। इस पूरे खेल के पीछे सत्ता का भी हाथ है और पूरी मशीनरी का भी। बाज़ार व सरकार के इस नये गठजोड़ ने सच्ची पत्रकारिता करनेवालों व इसके इथिक्स को बचाये रखने में लगे लोगों को भी चिंतित कर रखा है।

प्रबंधन व विज्ञापन के दबाव में अपने पत्रकारीय धर्म का ईमानदारीपूर्वक निर्वहन न कर पाने की छटपटाहट के बीच पत्रकारिता अपना तेवर खोती जा रही है। अखबारनवीस की कलम की धार कुंद होती जा रही है। अब खासकर हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में योग्य, कुशल, प्रतिभाशाली व ईमानदार पत्रकारों की कमी खलने लगी है। न्यूज़ रूम व रिपोर्टिंग में ऐसे लोग आ रहे हैं, जो संपादक के कृपापात्र होते हैं या पैरवीपुत्र। न्यूज़ रूम का माहौल ऐसा बन गया है, जहां बौद्धिक विमर्श के लिए कोई जगह नहीं है। घासलेटी बातें, घटिया राजनीति न्यूज़ रूम की भाषा व पहचान बन गयी है। वो ज़माना गया, जब एक पढ़ा-लिखा व जागरूक पाठक ‘संपादक के नाम पत्र’ लिख-लिख कर लेखक-पत्रकार बन जाता था। न्यूज़ रूम में भी इस स्तम्भ में प्रकाशित गंभीर पत्र पर चर्चा होती थी और उसका असर सरकारी विभागों पर भी पड़ता था।

जबसे अखबार उत्पाद वस्तु बना, तब से ‘खबरों का असर’ भी घट गया है। खबरों का असर दिखाने के लिए सरकारी विभाग तक को मैनेज किया जाने लगा है। खबरों का खौफ हाकिम-हुक्मरानों में नहीं रहा। मीडिया का मुंह बंद करना है तो विज्ञापन दे दो, नहीं तो पैसे से मीडिया मैनेज कर लो।

मीडिया मालिकों को भी अब संपादक नहीं, मैनेजर चाहिए, जो मैनेजमेंट की भाषा बोले, पत्रकारिता न झाड़े। वर्तमान समय में संपादक पद की गरिमा की बात करना बेमानी है। जब से हिन्दी अखबारों के छोटे-छोटे शहरों में लोकल एडिशन निकलना शुरू हुए हैं, तब से मीडिया के क्षेत्र में काफी गिरावट आयी है। जितने संस्करण, उतने संपादक चाहिए। बुज़ुर्ग संपादकों का ज़माना गया। अनुभवहीन, अधकचरे ज्ञान वाले युवा संपादकों की मांग बढ़ी है।

बाज़ारवाद की जकड़न में फंसे प्रिंट मीडिया के संसार में आज ऐसे संपादकों का अकाल पैदा हो गया है जो बाबूराव विष्णु पराड़कर की तरह नये समय के उपयुक्त कुछ नये शब्द गढ़ सकें। उच्च प्रौद्योगिकी के नये स्वरों के अनुकूल शब्दों को समायोजित कर सकें। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की तरह उपभोक्तावादी संस्कृति के विकृत प्रभाव से हिंदी भाषा के संस्कार को बचा सकें, विकृत और भ्रष्ट हो चुकी भाषा के परिमार्जन का बीड़ा उठा सकें। (3)

भाषा संस्कार व शुद्धता की दृष्टि से हिंदी पत्रकारिता को कंगाल कहा जा सकता है। हिंदी पट्टी से निकलने वाले अखबारों के डाक एडिशन को भाषायी प्रदूषण फैलाने के कारण ‘कचरा संस्करण’ कहा जा सकता है। 300 शब्दों के एक खबर में 50-100 त्रुटियां मिल जायेंगी। लुगदी अखबारों को पाठक झेल रहे हैं।

आज संकट सिर्फ मीडिया की विश्वसनीयता व साख का ही नहीं, बल्कि स्मार्टफोन के ज़माने में गंभीर पाठकों का भी हो चला है। आज के सुधि पाठकों की मुट्ठी में दुनियाभर के अखबार व चैनल सिमटकर आ गये हैं। शहरी ही क्यों, गांव के नवधनाढ्य भी स्टेटस सिंबल के लिए दो-तीन अखबार अपने दरवाज़े तक मंगवाता है, लेकिन 4जी-5जी की स्पीड से भाग रही खबरों के पीछे उनका दिमाग भागता रहता है। उसे फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सअप, ब्लाॅगिंग, यू-ट्यूब से फुर्सत कहां है कि 16-18 पेज के न्यूज़पेपर को पलटे। पाठक ही क्यों, पत्रकार भी तो सिर्फ लिखने के आदी हो गये हैं, पढ़ने के नहीं। महीनों तक एक ही तरह की गलतियां छपती रही हैं और पाठक उसे झेलता रहता है। इतना ही नहीं, कई और तरह के संकट झेल रहे प्रिंट व इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पूंजी के प्रवाह में ऐसा बहा कि उसकी भूमिका ही बदल गयी। निष्पक्ष पत्रकारिता व साख के बल पर सरकार तक को हिला देनेवाला मीडिया पेड न्यूज़ छापने लगा। जनमत निर्माण की महती भूमिका छोड़कर सरकार के पक्ष में अथवा खिलाफ में हवा बनाने में रम गया। इसका असर सबसे पहले उसकी साख पर पड़ी।

हालांकि, 2009 में देश के छह बड़े संपादकों प्रभाष जोशी, कुलदीप नैयर, अजीत भट्टाचार्य, जार्ज वर्गीज, हरिवंश व अच्युतानंद मिश्र ने पेड न्यूज़ के खिलाफ देशभर में अभियान चलाकर वर्णसंकर पत्रकारिता पर आघात किया। 6 फरवरी 1992 को सुप्रसिद्ध पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह ने रांची में प्रभात खबर द्वारा आयोजित ‘भारत किधर व्याख्यानमाला’ में चिंता जाहिर की थी,

हिंदी पत्रकारिता में आज सबसे बड़ी चुनौती पत्र-पत्रिकाओं और अखबार के साख की है। पिछले दो सालों से साख का सवाल ज़्यादा विकराल रूप में हमारे सामने आ खड़ा हुआ है। मंडल आयोग और मंदिर-मस्ज़िद के मुद्दों पर तो साख को और धक्का लगा है। आज हिंदी पत्रकारिता जहां पहुंची है, वहां से वह ऐसे सवाल छोड़ गयी है, जिसका सही समाधान नहीं किया गया, तो वह पतन के गर्त में चली जायेगी। अभी तो लोग पत्रकारों से पुलिसवालों की तरह डरने लगे हैं। पता नहीं क्यों यह स्थिति बनी है कि लोग पत्रकारों, पत्रकारिता और छपे हुए शब्दों से डरने लगे हैं। इन्हें अप्रभावी माना जाने लगा है, जबकि कुछ वर्ष पहले तक लोग अखबार में छपे शब्दों को ब्रह्म वाक्य मानते थे और पत्रकारों को सम्मान की नज़र से देखते थे। आज यह आत्ममंथन करने की ज़रूरत है कि कहीं इसके लिए पत्रकार स्वयं तो जिम्मेवार नहीं हैं? (4)

इसमें दो राय नहीं कि जब मीडिया कमज़ोर होगा, तो लोकतंत्र को संक्रमण से नहीं बचाया जा सकता है। अब समय आ गया है कि पत्रकारिता की कमज़ोर होती जड़ों को मज़बूत किया जाये। मीडिया को खुद अपनी भूमिका तय करनी होगी, नहीं तो बाज़ार उसे ग्रास बनाकर चबा जायेगा। इन दिनों पत्रकारिता के शब्दकोष में कई ऐसे शब्द गढ़े गये हैं, जो उसकी भूमिका को प्रभावी बना सकते हैं। जनमीडिया, सोशल मीडिया, कम्युनिटी मीडिया, मोबाइल मीडिया के दौर में इस क्षेत्र में नयी संभावनाओं का दौर खुला है। देश-दुनिया में कई सफल प्रयोग हुए हैं, जो भटके काॅरपोरेट मीडिया को चुनौती दे सकते हैं। कम संसाधन व पूंजी में यूपी के बुंदेलखंड समेत कई ज़िलों से महिलाओं द्वारा निकाले जानेवाला अखबार ‘खबर लहरिया’ इसका बड़ा उदाहरण है। देश ही नहीं विदेशों में भी वैकल्पिक मीडिया के कई सफल नाम हैं।

‘ओह माई न्यूज़’ दक्षिण कोरिया का एक आॅनलाइन न्यूज़पेपर है, जिसकी पंचलाइन ही है, ‘हर नागरिक पत्रकार है’। इसमें 80 फीसदी कंटेंट आमलोग उपलब्ध कराते हैं और केवल 20 फीसदी पेशेवर पत्रकार। न किसी काॅरपोरेट घरानों का दबाव और न सरकार का। ओह माई न्यूज़ करीब 17 साल से नागरिक पत्रकारिता के ज़रिये अपने दायित्वबोध से भटके मीडिया के समक्ष एक नजीर पेश करता आ रहा है।

बहरहाल, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडिया को तमाम दबावों, प्रलोभनों के बीच से ही कोई न कोई रास्ता खोज निकालना होगा, जो उसे पुरानी भूमिका में ला खड़ा करे, क्योंकि बाज़ार से मुक्ति अभी मिलनी नहीं है। जिस दिन मीडिया अपनी पत्रकारीय धर्म को छोड़कर पूरी तरह बाज़ारू बन गया, उसी दिन उसका क्षय अवश्यंभावी हो जायेगा। आज डर इसी बात का है और इस मुश्किल भरे दौड़ से उबार ले जाने की चुनौतियां भी बरकरार हैं।

संदर्भ:
1. गवेषणा, पृ. 104-105, अंक-105/2015
2. जन मीडिया, पृ. 24, अंक-फरवरी 2017
3. गगनांचल, पृ. 95, अंक-4-5, जुलाई-अक्टूबर, 2015
4. प्रभात खबर: प्रयोग की कहानी, पृ. 185

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