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यहां सरकार बदलने के साथ बदल जाता है स्कूली किताबों का कंटेंट

कमोबेश चार साल पहले आई, रजत कपूर निर्देशित एवं लिखित फिल्म “आंखो देखी” के एक सीन में अभिनेता संजय मिश्रा का चरित्र, ‘बाऊजी’ स्कूल के गणित के टीचर रमेश बाबू से संवाद करते हुए कहता है,

आप जो गणित पढ़ाते हैं उसकी बुनियाद ही गलत है, दो समांतर रेखा इन्फिन्टी में जाकर कैसे मिल सकती है? जब दो समांतर रेखाएं मिल ही गई तो समांतर रेखा कैसे रह गई?

स्कूली किताबों में कई इस तरह के संदर्भ हर विषय में हैं, जिसके मायने बाद के दिनों में पढ़ाई के बाद पूरी ही तरह से उलट या बदल जाते हैं। मसलन, साइंस की किताब में “प्रकाश सीधी रेखा में गमन करती है” बाद के साइंस की किताबों में यह संदर्भ सिद्धांत और व्याख्या के अनुसार पूरी तरह से बदल गई। ऐसा किसी एक विषय के साथ नहीं कई विषयों के साथ होता है, क्योंकि नये शोध या तथ्य विषय वस्तु को नए आलोक में पुर्नपाठ पेश करते हैं।

कहने का आशय यह है कि स्कूली किताबों में पढ़ाई जाने वाली कई चीजें वस्तुनिष्ठ तरीके से तार्किकता की मांग हमेशा से करती है, जिसे सही संदर्भ और वैज्ञानिकता के साथ समझने और समझाए जाने की ज़रूरत होती है। स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली पाठ्यपुस्तक वो किताबें होती हैं, जो छात्रों को अपने अतीत और जीवन की छोटी-बड़ी वास्तविकताओं से रूबरू कराती हैं, आलोचनात्मक क्षमता विकसित करने का कौशल विकसित कराती हैं। यही से कसौटियों को जांचने-परखने और उसको तार्किकता पर कंसने की शुरुआत होती है। ज़ाहिर है कि स्कूली पाठ्यपुस्तकों में प्रकाशित पाठ्य से छात्र आसानी से प्रभावित हो सकते हैं।

इस स्थिति में कभी-कभी स्कूली पाठ्यपुस्तकों में त्रुटी केवल अल्पज्ञता नहीं, बल्कि एक सोची समझी धूर्तता का प्रमाण अधिक लगती है। जिसपर केवल सफाई देकर बचा नहीं जा सकता है। पिछले दिनों राजस्थान में आठवीं की सोशल साइंस की पाठ्य पुस्तक में बाल गंगाधर तिलक को “आतंक का पितामह” बताने पर हुआ विवाद जोरों पर है। जबकि “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है…मैं इसे लेकर रहूंगा” का नारा देने वाले स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की देश में एक अलग पहचान रही है। अंग्रेजों ने भी यह कभी नहीं कहा कि तिलक आतंकवाद के जनक थे, उनको गरम दल का ज़रूर कहा जाता था, पर आतंकवादी नहीं। ज़ाहिर है कि राजस्थान में आठवीं की सोशल साइंस की पाठ्य पुस्तक में बाल गंगाधर तिलक के बारे में जो कुछ कहा गया है वह निराधार है।

कुछ दिनों पहले एनसीईआरटी (नेशनल काउंसिल आंफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग) की 12वीं की नई किताब में हिंदुत्व का शाब्दिक अर्थ कुछ इस तरह परिभाषित देखने को मिला, “हिंदू होना और एक मज़बूत राष्ट्र केवल मज़बूत और एकजुट राष्ट्रीय संस्कृति के आधार पर बनाया जा सकता है”। इसके पहले कई राज्य सरकारों में स्कूली पाठ्यपुस्तकों में कभी अकबर, कभी राणा प्रताप, कभी शिवाजी, कभी नेहरू को लेकर भी विवाद सामने आते रहे हैं। जिसपर शिक्षाविदों का मानमा है कि सरकारें स्कूली किताबों के माध्यम से विचारधारा को बढ़ावा दे रही हैं।

कभी कोई राज्य सरकारें स्कूली किताबों के स्तरहीनता पर बहस क्यों नहीं चलाती हैं? पिछली किताबों को हटाने और नई किताबों को लाने के बदहवासी में इस बात पर कोई चर्चा क्यों नहीं करना चाहता है कि विज्ञान, गणित, हिंदी या अन्य किताबें इतनी खराब क्यों हैं? हिंदी की किताबों में स्त्री विरोधी चुटकुले या उनकी खराब रचनाएं क्यों है? क्यों सुंदरता के पैमाने को त्वचा की गोराई और कुरूपता को कालेपन से ही समझाने की कोशिश होती है? तमाम शोधों के सुझावों में ध्यान दिलाने के बाद भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। क्या मानवीय स्तर पर ऐसे पाठ्यपुस्तकों का विकास क्यों नहीं हो सकता, जिससे जीवन मूल्य, समानता, नैतिक कसौटी और आपसी भाईचारे का विकास कर सके।

सवाल है कि स्कूली किताबों को सरकार अपने विचारों के प्रचार सामग्री में क्यों बदल देना चाहती है? सरकार छात्रों में अपने अतीत के प्रति आलोचनात्मक नज़रिये का विकास क्यों नहीं होने देना चाहती है? इतिहास हमारे पसंद या नापसंद के तथ्यों का संकलन या नायकों के गुणगाणों का स्त्रोत मात्र तो है नहीं। क्यों राज्य सरकारें पाठ्यपुस्तकों की ईमानदारी से पड़ताल नहीं करना चाहती है। क्या स्कूली बच्चे भी छद्म राष्ट्रवाद पैदा करने के साधन बनकर रह गए हैं या वो इस देश का उज्जवल भविष्य हैं, जिनका अपने अतीत और वर्तमान के प्रति आलोचनात्मक होना अधिक ज़रूरी है। स्कूली किताब ज्ञान का प्रकाशपुंज है, विचारधाराओं का माध्यम नहीं।

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