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मुक्तिबोध की कविताएं सच्चाई दिखाने का आइना है

हालांकि मैं आमतौर पर हिंदी में लिखने से डरता हूं। इसका सीधा कारण ये है कि हिंदी टाइपिंग में थोड़ा कमज़ोर हूं। फिर भी हिंदी साहित्य से लगाव हमेशा रहा है। इसलिए एक हिंदी के कवि के बारे में हिंदी में ही लिखना जायज़ है। मुक्तिबोध मेरे पसंदीदा कवि हैं। शायद पसंदीदा साहित्यकार कहना सही होगा। उनकी कविताएं मार्क्स और टॉलस्टॉय की उधेड़बुन से निकलती हुई लगती हैं। यही उधेड़बुन उन्हें आज के समाज का शायद सबसे बड़ा ‘क्रिटिक’ बनाती है। उनकी कविताओं में सामाजिक सोच का एक ऐसा तराना है जो हमें खुद में झांकने को मजबूर करता है।

“ओ मेरे आदर्शवादी मन, ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,

अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया?”

आज जब कूटनीति, राजनीति और तमाम ऐसी नीतियां इंसानियत से कोसों दूर हो गयी हैं तब ये ज़रूरी है कि एक ऐसा आईना हमारे सामने हो जो हमें इस सच्चाई से रूबरू कराये और इसी वक्त में हमें मुक्तिबोध जैसे दार्शनिक की ज़रूरत है। वो व्यक्ति जो दुनिया के उलझे हुए सत्य की खोज में अपनी तीखी कलम को हमेशा घिसता रहा, ज़रूरी है उसका प्रयास हमें ज्ञात हो।

“मैं तुम लोगों से इतना दूर हूं, तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है,

कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।”

सामाजिक चेतना के लिए साहित्य एक अहम भूमिका निभाता है। आज ज़रूरत है ऐसे साहित्य को पढ़ने की, ऐसे साहित्य को रचने की, जो आज की पीढ़ी को समाज की सच्चाई से अवगत कराये। ज़रूरी है कि आज हम मणि कॉल जैसे उन कलाकारों को भी सराहें जिन्होंने ‘सतह से उठता आदमी’ जैसी कृति को एक ‘एक्सपेरिमेंट’ के तौर पर रचा। आज ज़रूरत है मुक्तिबोध, धूमिल, और उन जैसे अनेकों कवियों और साहित्यकों की जो हमारी आवज़ को बुलंद बनायें।

“अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे

तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब

जाना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार,

जहां प्रतिपल कांपता रहता अरुण-कमल एक।”

और आखिर में-

“कोशिश करो, कोशिश करो, कोशिश करो,

जीने की, ज़मीन में गड़ कर भी।”

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