लेबर, लेबर पेन, लेबर रूम, लेबर कोर्ट, हार्ड लेबर इत्यादि, इत्यादि।
जहां भी लेबर है उसका भाव ही तकलीफ, दर्द, परेशानी और मेहनत से है। लेबर कहीं भी हो सकता है, कोई भी हो सकता है और किसी भी रूप में हो सकता है, प्रशिक्षित भी और अप्रशिक्षित भी।
एक बड़ी उम्र तक लेबर या मज़दूर का मतलब मेरे लिए बस यही था, धूप में स्याह हुआ वो चेहरा, जिसके माथे से पसीना गिरते हुए, नाक से लटकते हुए, ठोड़ी पर अटकते हुए, गर्दन से नीचे जाए। कपड़ा एकदम मटमैला और एड़िया एकदम कटी- फटी हो। कुल मिलाकर निराला की “वह तोड़ती पत्थर” की छवि से ज़्यादा मज़दूर की समझ थी ही नहीं।
जब सिनेमा देखने और समझने की उम्र हुई तो मज़दूर वहां भी दिखा, फैक्ट्री वाला मज़दूर। लेकिन मज़दूर की जो छवि बनी हुई थी उसमें कोई बदलाव नहीं आया। कारण यह था कि हमारी आदत होती है एक स्टिग्मा अपने दिमाग में रखने की जैसे आदिवासी बोलो तो झिंगा ला ला ला। मज़दूर बोलो तो स्याह चेहरा, जाट बोलो तो लट्ठ मार बोली। सो ये स्टिग्मा ज़बरदस्त तरीके से बना हुआ था।
अब पढ़ने लिखने की उम्र हुई, मतलब कॉलेज में आ गए, आप कहीं भी पढ़े और किसी से भी पढ़ें अगर आर्ट्स और सोशल साइंस पढ़ते हैं तो कार्ल मार्क्स से ज़रूर मुलाकात होगी। अब क्लास स्ट्रगल, फॉर प्रोसेस ऑफ एलिएनेशन (alienation) और सरप्लस वैल्यू ,एग्ज़ाम में लिखने भर पढ़ लिया था लेकिन अभी भी बात समझ में नहीं आयी। दरअसल कुछ बातें तब तक समझ में नहीं आती हैं जब तक खुद उससे सामना ना हो।
अब थियरिटिकल नहीं प्रैक्टिकल स्टडी की ज़रूरत थी। और यहां से नौकरी शुरू हुई, नौकरी करते-करते यह ज्ञान हुआ कि अरे! मज़दूर स्याह ही थोड़े ही होते हैं, कपड़ा मटमैला ही थोड़े होता है, वो तो AC में भी काम करता है जहां पसीने की गुंजाइश नहीं ,जीन्स -पैंट और टाई -बेल्ट में भी होता है, सरपट अंग्रेज़ी भी बोलता है। वो जो स्टिग्मा में अब तक ढो रही थी अब जाकर धराशायी हो गयी। हवाई जहाज़ चलाने वाले लोग भी मज़दूर होते हैं और मज़दूरी के लिए कई बार हड़ताल पर भी जाते हैं, बैंक में काम करने वाले कर्मचारी और मीडिया में काम करने वाले पत्रकरों में 75 फीसदी मज़दूर ही तो होते हैं।
कुल मिलाकर यह कि हर तबके के मज़दूर होते हैं, कुछ प्रशिक्षित और कुछ अप्रशिक्षित। अगर इनमें कोई अंतर होता है तो वो काम और वेतन के स्तर पर होता है लेकिन हर तबके के मज़दूरों का पूंजीवादी शोषण होता रहा है, और हो रहा है। कभी लेबर कोर्ट जाने का अगर मौका मिले तो आपको पता चलेगा कि कुकुरमुत्ता की तरह उगने वाली संस्थाओं से लेकर शीशमहल दफ्तर वाली जो संस्था होती है जिसके फॉलोअर करोड़ों में होते हैं उनके कर्मचारी भी कोई ग्रैचुटी, तो कोई बकाया वेतन-भत्ते के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।
कोर्ट में जद्दोजहद करने वाले यह कर्मचारी सिर्फ दफ्तर में आपको चाय पहुंचाने वाले आपके पेंट्री बॉय “कानू दादा” ही नहीं होते बल्कि यहां “सर जी” लोग भी लाइन में होते हैं। तब जाकर सारा कॉन्सेप्ट क्लियर होता है कि मज़दूर हर तबके का होता है। दरअसल समय इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन का हो या ग्लोबलाइज़ेशन का, शासक और शोषित यथावत है।
शोषण हो रहा है, तो कहने का अभिप्राय ये नहीं है कि हम मज़दूरी छोड़ दें।
हमलोग कोई अडानी- अंबानी थोड़े ही हैं ! योग भी नहीं आता की योगाभ्यास करके गुज़ारा करें! “टैलेंट” है ही नहीं कोई ! नेम का सरनेम भी उतना भारी नहीं है ! पुरखों का भी इतना दिया हुआ नहीं है कि उसी का डकार लेते रहें ! सो मज़दूरी तो करनी ही है। लेकिन ये मसला ही गीव एंड टेक का होता है, कोई किसी पर उपकार नहीं कर रहा है, इसे हमेशा याद रखना है। हक याद रखियेगा।
हक।
मज़दूरी करो रे
मज़दूर बने रहो रे
मज़दूर दिवस की शुभकामना