Site icon Youth Ki Awaaz

छक्‍का कहकर ट्रंसजेंडर समुदाय का अपमान क्यों किया जाता है?

स्‍कूल में इन्‍हें चिढ़ाया जाता है। अपमानजनक शब्‍दों का प्रयोग किया जाता है। छक्‍का, गुड, गांडू, फलक्या, मामू, होमो, बायल्या, नम्बोत्तु और अडंगी जैसे कई अपमानजनक शब्‍द देश के हर क्षेत्र में प्रचलित हैं। तमिल भाषा में नंबेस्‍तु (नव नंबर) और अली जैसे अपमानजनक शब्‍द प्रचलित हैं । इस स्‍वभाव के बच्‍चों को घर-परिवार बहिष्‍कृत कर देता है। समाज उन्‍हें हाशिए पर रख देता है। इसके कारण हम उनके प्रति संवेदनशील नहीं हो पाते हैं।

द्विलिंगी मानसिकता वाला पुरुषसत्‍तात्‍मक समाज, इतिहास, धर्म, विज्ञान और संस्‍कृति को बिना समझे ही अपनी अंधी मानसिकता का विकास कर ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को नाना यातनाएं देना ही अपनी संस्‍कृति, धर्म, इतिहास और विज्ञान आदि मान लेता है। हमारे समाज में वर्चस्‍ववादी लैंगिकता के विश्‍वासों, धारणाओं एवं मान्‍यताओं को अल्‍पसंख्‍यक लैंगिक लोगों पर थोपा जाता है। इस वर्चस्‍ववादी लैंगिकता का दंश झेलते बच्‍चे बचपन से ही शारीरिक, मानसिक और यौन शोषण का शिकार बनते जाते हैं। इस वर्चस्‍ववादी लैंगिक मानसिकता ने अपने ही घरों में अपने ही बच्‍चों को पराया बनाया है।

ऐसे बच्‍चे अक्‍सर खूनी रिश्‍तों की आत्मीयता के अभाव में जीते हैं। अकेलेपन के शिकार बन जाते हैं। कॉलेज में दोस्‍त मज़ाक उड़ाया करते हैं। इन बच्‍चों को हिंसक प्रवृत्तियों का सामना करना पड़ता है। छोटे बच्‍चे भी इनका मज़ाक उड़ाते हैं। प्रश्‍न यह उठता है कि इन मासूम बच्‍चों को कौन ऐसी सीख सिखाता है।

इस मानसिकता के पीछे ऐसे कौन से तत्‍व हैं, जो मनुष्‍य के पेट से पैदा हुए एक भिन्‍न लैंगिकता के व्‍यक्ति के साथ ऐसा व्‍यवहार करने के लिए मजबूर करता है। सामाजिक बुराइयों से भरी मानसिकता का शिकार हुआ हर व्‍यक्ति इनके प्रति संवेदनहीन होता है। हमारे तथाकथित सभ्‍य समाज को यह लगता है कि समाज को इनकी ज़रूरत नहीं है और ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग मात्र भीख मांगने के लिए बनाए गए हैं।

मराठी फिल्‍म ‘कोती’ ऐसे ही ग्रामीण जीवन जीने वाले घर में पैदा हुए बच्‍चे की कहानी है। जिसे सुभाष भोसले ने नि‍र्देशित किया है। इस फिल्‍म का एक डायलॉग है, जो इसी संदर्भ स्थिति में कहा गया है, ‘‘गायी मशी पाळता, कुत्री मांजरी पाळता पोटांच्‍या पोराला नाहीं संभाळु शकत।”

इसका मतलब यह है कि गाय-भैंस पालते हो, कुत्‍ते-बिल्लियां पालते हो लेकिन पेट से पैदा हुए बच्‍चों को नहीं पाल सकते। आखिर समाज इस बच्‍चे का पोषण करने के लिए क्‍यों तैयार नहीं है क्‍योंकि वह ट्रांसजेंडर है।

विडम्‍बना यह है कि जो समाज कभी मनुष्‍य के प्रति संवेदनशील बना ही नहीं, वह पशुओं के प्रति कैसे संवेदनशील बन सकता है? इस मानसिकता में खोखली धार्मिकता है। आज भारत में स्थिति ऐसी है कि ट्रांसजेंडर समुदाय को पशुओं से हीन माना जाता है।

द्विलिंगी रूढ़ि‍वादी समाज मानव का प्रतिनिधित्‍व मात्र स्‍त्री और पुरुष को ही मानता है। वे ही प्रजनन प्रक्रिया में भाग लेते हैं और मानव जाति को बनाए रखने में इनका योगदान होता है।

यहां तक कि अंधी धार्मिकता रखने वाले कई भारतीय नेतागण ट्रांसजेंडर के अधिकारों के खिलाफ हैं। उनका मानना है कि समलैंगिकता को बढ़ावा देना समाज में अश्‍लीलता को कायम रखने के समान है। स्‍त्री और पुरुष समलैंगिक संबंध रखेंगे तो मानव जाति का अंत हो जाएगा। यह संकुचित मानसिकता वाले लोग समलैंगिकता को बीमारी मानते हैं। जिसे गे, लेस्बियन, समलैंगिक, ट्रांसजेंडर समाज में फैला रहे हैं।

किसी को यातनाएं देकर उससे खुशी पाने की प्रवृत्ति समाज में प्रचलित है। किसी की कमज़ोरी पर अपना अधिकार जताना, चाहे वह कमज़ोरी आर्थिक, सामाजिक, नस्‍ल या लिंग के धरातल की हो सकती है।

विद्या (‘I am vidya’  ट्रांसजेंडर आत्मकथा की रचनाकार) के जीवन में घटित ऐसी ही एक बात है जो दर्दनाक है। इम्‍मानुल ने मेरा ब्लैंकेट निकालकर सुलगते सिगरेट को मेरे पांव पर दाग दिया। “Immanual removed my blanket and branded my foot with lighted cigarette.” यह ना नादानी है ना बचपना है, लैंगिक अल्‍पसंख्‍यकों के प्रति समाज का यही रवैया रहा है। क्‍योंकि भारतीय समाज में अल्‍पसंख्‍यकों के लिए कोई स्‍थान नहीं है।

जिस समाज में परस्पर परिवर्तित लैंगिकता की प्रवृत्ति को स्‍वीकृति नहीं, वहां के व्‍यक्तियों में हीन भावना अपने आप पनपने लगती है। वह अपने आपको दोषी या अपराधी समझने लगता है। इस स्थिति का जीता जागता उदाहरण ट्रांसजेंडर समुदाय है। पुरुषसत्‍तात्‍मक, रूढ़ि‍वादी लिंगीय मानसिकता की रुग्‍णता का शिकार बना मनुष्‍य ट्रांसजेंडर समुदाय को कभी मनुष्‍य नहीं समझ पाएगा।

तेलुगु भाषा में एक कहावत है, ‘‘कोडकू पदी मंदीनी चंपेटोडू उंडाली कानी, कोज्‍जोडु उंडकूडदू’’ (बेटा दस लोगों को मौत के घाट उतारने वाला हो लेकिन हिजड़ा ना हो) पुरुष प्रधान समाज हिंसा को प्रश्रेय देता है। मार-काट करना उनके लिए मर्दानगी का प्रतीक होता है। ऐसे समाज में भावनाओं की समझ के लिए कोई स्‍थान नहीं होता है। पुरुषसत्‍तात्‍मक, रूढ़ि‍वादी लिंगीय मानसिक रुग्‍णता का ईलाज करना आवश्‍यक है, नहीं तो इस क्रूरता का दंश हम सभी को झेलना पड़ेगा।

Exit mobile version