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क्या छतों से हमारा रिश्ता खत्म हो चुका है?

कल रात लाइट चली गई, रात के करीब 11 बजे होंगे। इन्वर्टर तो चल रहा था, लेकिन सोचा कि चलो आज छत पर चलते हैं। दो कुर्सियों को उठाया और हाथों में पानी की बिल्कुल ठंडी बोतल और अपना फोन लेकर हम अपनी छत पर पहुंच गए । देखा तो आस पास की छतों पर कोई नहीं था। फिर सोचा कि क्या छतों से हमारा रिश्ता खत्म हो चुका है?

क्योंकि अगर मैं गलत नहीं हूं तो आप और हम उस दौर से गुज़रे हैं जब बचपन में घरवाले हमें सुबह-सुबह उठाते थे और पढ़ने के लिए ज़ोर देते थे। गर्मियों के दिन में सुबह-सुबह सब अपनी छतों पर पहुंच जाते थे। जब थोड़े बड़े हुए तो हाथों में पतंग लेकर पहुंचने लगें, फिर एक दौर आया कि दूसरी छत पर अर्घनी पर टंगे कपड़ों को उतारने के लिए बारिश में कोई चेहरा अपनी छत पर दिखता था, जो एक तरफ भीग रहा होता, दूसरी तरफ एक हाथ से कपड़ों को उतारने की कोशिश दूसरे हाथों से बालों को भीगने से बचाता हुआ।

गर्मियों की छुट्टियां अक्सर पड़ोसियों के घरों में मेहमानों को घसीट लाती थी। ऐसे में बचपन में पड़ोसियों के घर आने वाले कुछ मेहमानों से भी दोस्ती हो जाती थी, एक दौर ऐसा भी था जब अमूमन घरों में इन्वर्टर नहीं होता था और लाइट जाते ही लोग ऊपर आ जाते थे। सब अपनी-अपनी उम्र वाले लोगों से बात करने में लग जाते।

अक्सर छतों से सब्ज़ियां भी एक्सचेंज होती, एक ही छत पर चाय बनती और दो- चार छतों तक पहुंच जाती। अंताक्षरी का दौर शुरू हो जाता। छज्जे-छज्जे वाले प्यार का यही दौर था, लेकिन आज, आज ये नज़ारा शायद किसी छत का नहीं, किसी मोहल्ले का नहीं, किसी शहर का नहीं। क्या कुसूर सिर्फ यह है कि अब लाइट कुछ कम जाती है, या हमारे और आपके घरों में सुख सुविधाएं बढ़ गई हैं?

फेसबुक पर 5000 दोस्त लेकिन पड़ोसी से बोलचाल बंद, शायद यही आज की सबसे ताज़ा तस्वीर है। बात सिर्फ छतों की नहीं है, बात रिश्तों की है, संस्कारों की है, और उस माहौल की है जो खत्म सा हो गया है। अब वो दौर नहीं रहा जब छत पर किसी के आने का टाइम फिक्स होता था और हमें पता होता था। अब तो सोशल मीडिया ने प्यार मोहब्बत को बेहद सरल बना दिया है।

क्या पहले ऐसा था? बिल्कुल नहीं, मैंने तो 2000 के बाद ये नज़ारा देखा है। क्योंकि तब हम धीरे-धीरे जवान हो रहे थे। लेकिन आपमें से कई लोगों ने अस्सी और नब्बे के दशक में इस दौर को देखा होगा। इन घटनाओं को महूसस किया होगा, और मुझसे बहुत बेहतर तरीके से महसूस किया होगा।

मुझे कल रात लगा कि एक बहुत अच्छा माहौल हमने खो दिया है। और जब मैंने खो दिया है तो जब मेरे बच्चे बड़े हो रहे होंगे तो शायद उन्हें मैं इन घटनाओं की कहानियां ही सुना पाऊंगा। वो इस माहौल को फील नहीं कर पाएंगे। वो नहीं जान पाएंगे कि मोहल्ले में पड़ोस में रहने वाली लड़की दीदी होती थी, पड़ोसी दोस्त के मामा बिल्कुल अपने मामा जैसे होते थे। अगर पड़ोस के चाचा डांट देते थे, तो पापा उनसे लड़ने नहीं जाते थे। पड़ोस के किसी भी घर में कभी भी जाकर हम कुछ भी खा लेते थे, बिल्कुल अपने घर की तरह।

लेकिन एक सवाल कीजिए खुद से कि क्या आज आप अपने बच्चों को ये इजाज़त देंगे कि वो पड़ोस के चाचा के साथ बाज़ार घूम आए? कतई नहीं, क्योंकि हमारे और आपके मन में कई शंकाएं हैं, और फिक्र है अपने बच्चों की। और यह कहना दुखद है कि आज पड़ोसियों पर क्या रिश्तेदारों पर भी विश्वास खत्म हो गया है। हमारे बच्चों को मौका ही नहीं मिलता कि वो अपने पड़ोस में रहने वाले परिवार को समझ पाएं, उसमें घुल मिल पाएं। यही आज की हकीकत है, दूरी छतों से ही नहीं, दिलों से भी हो गई है। मैंने जो महसूस किया वो कहा, आप कोशिश कीजिएगा कि आप भी किसी शाम को अपने हाथों में चाय का कप लेकर अपनी छत पर पहुंचे। और आपको जो लगे वो साझा ज़रूर करें।

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