Site icon Youth Ki Awaaz

राज्यपाल की निष्पक्षपता पर सवाल खड़ा करता है कर्नाटक चुनाव

यह गर्व से स्वीकारा जा सकता है कि एक तरफ जहां दक्षिण एशिया समेत संपूर्ण विश्व के कई देशों में लोकतंत्र स्थाई नहीं रह सका वहीं भारतीय संविधान ने एक नव स्वतंत्र राष्ट्र को मज़बूती से बांधे रखने में बड़ी भूमिका निभाई। चूंकि हमारा संविधान अनेक अंतर्विरोधों से गुज़र कर निर्मित हुआ है ऐसे में कुछ कमियों का रह जाना स्वभाविक है। इन्हीं कमियों में शामिल है राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों में अस्पष्टता, जो इन दिनों कर्नाटक चुनाव में विवाद का प्रमुख कारण बनी।

गौर करें तो पाएंगे कि कर्नाटक का वर्तमान संकट कोई नया नहीं है बल्कि इसकी शुरुआत 1959 में उसी समय हो गई थी जब केरल में केंद्र व राज्य सरकार के बीच राजनीतिक मतभेद के चलते राज्यपाल ने सरकार को बर्खास्त कर दिया था। दरअसल, हमारे संविधान ने अनुच्छेद 163 के तहत राज्यपाल को विवेकाधीन शक्तियां प्रदान की हैं और अनुच्छेद 367 के तहत इन विवेकाधीन शक्तियों को न्यायालय तक में चुनौती नहीं दी जा सकती। अब चुनौती इस बात की है कि इन विवेकाधीन शक्तियों को किस तरीके से अधिक से अधिक लोकतांत्रिक, नैतिक व दबाव मुक्त बनाए जाये ?

इस चुनौती से निपटने के लिए तीन उपाय कारगर साबित हो सकते हैं। पहली कोशिश यह होनी चाहिए कि राज्यपाल ऐसा हो जो उस राज्य और राज्य की राजनीति दोनों से संबंध न रखता हो। इसके लिए हमारे देश की नौकरशाही एक बेहतर विकल्प साबित हो सकती है। दो , विवेकाधीन शक्तियों का पर्याप्त स्पष्टीकरण हो ताकि विपक्षी दलों द्वारा सत्ता के दबाव में काम करने के आरोप लगाने की गुंजाइश ही ना बच सके। तीन, राज्यपाल की नियुक्ति मुख्यमंत्री की सलाह पर हो लेकिन इसके लिए अनुच्छेद 155 में संशोधन की आवश्यकता होगी।

चुंकि राज्यपाल का महत्व राज्य के संवैधानिक प्रमुख तक ही सीमित नहीं है बल्कि वह केंद्र व राज्य के बीच भी महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में काम करता है। ऐसे में आवश्यक है कि इस महत्वपूर्ण पद को पारदर्शी व जवाबदेह बनाया जाये ताकि भविष्य में कर्नाटक जैसे वातावरण के चलते किसी अन्य राज्य का सामाजिक-आर्थिक विकास व संघवाद की भावना प्रभावित ना हो।

_______________________________________________________________________________

नोट- यह लेख पहले जनसत्ता में प्रकाशित हो चुका है।

Exit mobile version