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“नव-राष्ट्रवादी थ्योरी में जिन्ना वज़ीर बन गये हैं”

मौजूदा भारतीय राजनीति की ज़रूरतों के हिसाब से मोहम्मद अली जिन्ना जिनको पड़ोसी मुल्क के लोग  कायद-ए-आज़म बुलाते हैं, शतरंज के खेल में उस प्यादे की तरह हैं जो आठ घरों को पार करके वज़ीर बन गए हैं। वो मौजूदा राजनीति में उस पाले में है जिन्होंने नव-राष्ट्रवादी थ्योरी से शैक्षणिक संस्थाओं का ध्रुवीकरण कर दिया।

जनता को बुनियादी मुद्दों से भटकाकर एक भावनात्मक मुद्दों को उछाल कर और आरोप-प्रत्यारोप, सभाएं, धरना, प्रदर्शन, जूलूस, प्रेस काँफ्रेस की राजनीतिक ख्वाहिश पाली, उसमें नव-राष्ट्रवादी सफल सिद्ध हो गये। मोहम्मद अली जिन्ना भारतीय राजनीति का वह वज़ीर हैं जिनके बारे में तथ्यों से अनजान रहकर मौजूदा सत्तारूढ़ दल कभी लालकृष्ण आडवाणी और जसंवत सिंह तक को कटघरे में रखने से पीछे नहीं रहा।

अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में जिन्ना की तस्वीर लगे होने का विवाद भी कुछ ऐसा ही है, जिसकी ज़रूरत तो नहीं थी। जिस अवधारणा के तहत मोहम्मद अली जिन्ना भारतीय राजनीति में भारत विभाजन के गुनाहगारों के पहली जमात में हैं उसके लिए केवल अली जिन्ना को ज़िम्मेदार मानना कमअक्ली ही होगी, क्योंकि भारत विभाजन के गुनाहगारों की सूची में उस दौर के तमाम राजनीतिकार रहे हैं, सबों ने विभाजन के पक्ष में ही अपना मत दिया था। वो अपने ही मुल्क में बेगाने से हैं, धर्म के आधार पर बना राष्ट्र पाकिस्तान में बंगालादेश बनने की परिघटना ने मोहम्मद अली जिन्ना के धर्म के आधार पर राष्ट्र की परिकल्पना को नकार दिया। वास्तव में भारतीय जनमानस में मोहम्मद अली जिन्ना राष्ट्रवादी नेता के रूप में कम और उस शख्स के रूप में अधिक जाने जाते हैं जिसने मुसलमानों के लिए अलग मुल्क की मांग की।

इस तरह मोहम्मद अली जिन्ना आज़ाद भारत में हिंदू और मुस्लिम समाज में समान रूप से गुनाहगार के रूप में मौजूद हैं। सही जानकारी के अभाव में उनके नाम का ज़िक्रभर लोगों के नथुनों को गुस्से से सिकुड़ने पर मजबूर कर देता है।

मौजूदा सोशल मीडिया के दौर में इस बारीकी को समझना अधिक ज़रूरी है कि इतिहास में जो घटनाएं लंबी और जटिल प्रक्रिया के तहत घटी हैं, उन घटनाओं को संदर्भ से काट कर मनचाहे तथ्य चुनकर एक खास रंग का रंगरोगन करके सोशल मीडिया पर परवान चढ़ाया जा रहा है। इस कड़ी में कभी पद्मावती को ज़िंदा कर दिया जाता है तो कभी टीपू सूल्तान को, कभी अकबर तो कभी औरंगज़ेब। इसी कड़ी में गांधी, नेहरू, पटेल यहां तक की बाबा साहब भी पुनर्जीवित हो जाते हैं। उनके संघर्षों के कु-पाठ का मर्सिया इस तरह से पढ़ा जाता है कि हम तू-तू, मैं-मैं में उलझ जाते है। हमें यह समझना ज़रूरी है कि तिहासिक सच्चाईयों को नकार कर सिर्फ खुद को धोखा ही दे सकते हैं। इतिहास में उनकी उपस्थिति को मिटा नहीं सकते हैं चाहे वो हमें स्वीकार्य हो या ना हो।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में जिन्ना की तस्वीर लगे होने के विवाद में उस एएमयू की उस छवी को धूमिल किया जा रहा है जिसको गढ़ने में अनगिनत महत्वकांक्षाओं ने शिद्धत से अपना योगदान दिया है। एएमयू ने आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद भी सबसे ज़्यादा पढ़ा-लिखा मध्यवर्गीय ज़हीन तबका मुहैया कराया है। इस संस्था ने आज़ादी के दीवानों को भी पैदा किया है, अंधेरे और हताशा में डूबे समाज को शिक्षित कर खुदमुख्तारी करने का रास्ता भी दिखाया है और देश को डॉ. ज़ाकिर हुसैन, सैय्यद महमूद, मोहम्मद अशरफ, अहमद किदवई जैसे अनगिनत लोग भी दिए जो भारतीय लोकतंत्र के वास्तुकार भी बने।

जिस दौर में लगातार अलीगढ़ यूनिवर्सिटी को लगातार निशाने पर रखने की कोशिशे हो रही हैं, हमको ये समझना ही होगा कि एएमयू के यूनियन हॉल में जिन्ना की तस्वीर पर अलग-अलग दल अपनी सांप्रदायिक राजनीति चमका रहे हैं। पहले भी कई शिक्षण संस्थानों को दलगत राजनीति के धरे ने बदनाम कर उसकी साख पर बट्टा लगाने की कोशिशे की हैं। मौजूदा राजनीति के शतरंज के बिसात पर वजीर बना दिये गये मोहम्मद अली जिन्ना के मौजूदा विवाद में हमें घोड़े के अढ़ाई चल कर शह और मात देना ही होगा नहीं तो हम देश के उम्दा शैक्षणिक संस्था को राजनीतिक अखाड़ा बनाकर बर्बाद कर देंगे।

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