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भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय की समाजिकता का सवाल

समाज में किसी व्यक्ति का स्वभाव किस हद तक स्वीकृत होता है, वह हमारी सहिष्णुता पर निर्भर होता है। ट्रांसजेंडर समुदाय का ताली बजाना, साड़ी ऊपर करके अपना गुप्तांग दिखाना, डरा धमका कर पैसे छीन लेना आदि इस समुदाय के असामाजिक स्वभाव हैं। जिसके कारण ट्रांसजेंडर समुदाय को एक संवेदनशील व्यक्ति भी सम्मान नहीं दे पाता है। लेकिन समाज में और भी कई असामाजिक व्यवहार हैं जैसे बाल यौन हिंसा, भ्रूण हत्या, दहेज़ प्रथा, वैवाहिक यौन हिंसा, देह व्यापार, दंगे, खून खराबा इन चीज़ों को अंजाम देने वाले लोग आज भी मुख्यधारा का हिस्सा हैं। उनके स्वभाव को असामाजिक नहीं करार दिया जाता है।

ट्रांसजेंडर समुदाय जीविका के अभाव में आज यौनकर्म या भिक्षाटन करने के लिए मजबूर है। मुख्यधारा के समाज में ट्रांसजेंडर समुदाय को लेकर कई गलत भ्रांतियां प्रचलित हैं, जैसे ट्रांसजेंडर समुदाय बच्चों को अगवा कर उन्हें जबरन ट्रांसजेंडर बना देते हैं। ट्रांसजेंडर समुदाय को मुख्यधारा का समाज ही तो निर्मित करता है, स्त्री और पुरुष ही तो उन्हें जन्म देते हैं। एक प्राकृतिक जैविक प्रक्रिया प्रजनन के द्वारा ही इनका जन्म होता है, जिनका अस्तित्व सामाजिक, प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक है।

देवदत्त पटनायक ने अपनी पुस्तक ‘शिखंडी’ में इस बात का उल्लेख किया है कि किसी भी समुदाय के प्रति भय हमें उन्हें प्रताड़ित व शोषित करने के लिए प्रेरित करता है। इस भय का निर्माण भी हम ही करते हैं। पुरुषसत्तात्मक समाज की पाखंडी नैतिकता के अनुसार ट्रांसजेंडर समुदाय समाज कल्याण के अयोग्य समझा जाता है। क्योंकि उनके पास मर्दानगी नहीं है, परन्तु मानव समाज को कायम रखने के लिए मात्र मर्दानगी ही काफी नहीं होती है। क्योंकि समाज के कल्याण एवं विकास के लिए हर किसी यौनिकता की अपनी भूमिका होती है, परन्तु पुरुषप्रधान समाज में इन्हें अयोग्य मानकर इनके प्रति गलत भ्रांतियां प्रचलित की जाती हैं। इसलिए सतीश कुमार शर्मा अपनी पुस्तक ‘हिज्रास द लेबल डीवियंट ऑफ इंडिया’ में लिखते हैं

“The human being accept anything functional to them reject anything Non functional.”

समाज में किस लिंग की उपयोगिता है किस लिंग की नहीं, इसका निर्धारण करने का अधिकार पुरुष प्रधान समाज में पुरुष को होता है। लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी (‘मैं हिजड़ा,मैं लक्ष्मी’ आत्मकथा की रचनाकार) अपने स्कूल में उसके सहपाठियों के द्वारा किये गए भद्दी मज़ाक से असहज महसूस करती थी। वह समाज के अयोग्य हैं इसका इल्म उन्हें समाज से मिला, ना कि स्वयं से, वह तो अपने आप को योग्य समझती थी और हैं।

यह हमारे सामजिक संरचना की एक विडंबना है, जो लैंगिक अल्पसंख्यकों को नीचा दिखाता है और उन्हें अछूत एवं असामाजिक व असामान्य घोषित करता है। ट्रांसजेंडर समुदाय के शारीरिक यौन सम्बन्ध से मनुष्य का विकास तो नहीं हो सकता, परन्तु इस यौन सम्बन्ध से वह लोग अपने आप में आनंद तो प्राप्त कर सकते हैं। पुरुषप्रधान समाज में सेक्स का संबंध बच्चे पैदा करने से रहा है। ट्रांसजेंडर समुदाय बच्चे पैदा नहीं कर सकता है, इसलिए इनके सेक्स को अप्राकृतिक एवं अपराध बना दिया गया है।

पुरुषसत्ता के कारण बेटे को जन्म देना मर्दानगी का प्रतीक बना दिया गया है। सेक्स का मतलब बेटे पैदा करने तक सिमित बना दिया गया है, परन्तु महर्षि वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ के अनुसार काम का लक्ष्य बेटे पैदा करना या अपनी मर्दानगी साबित करना नहीं है। रुथ वनिता ने ‘सेम  सेक्स लव इन इंडिया’ में कामसूत्र के अनुसार काम की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की है

“Kama as the mental inclination toward the pleasures of the senses-touch, sight, taste, and smell…kama finds its finality in itself”

काम एक मानसिक रुझान है इसका लक्ष्य अपने आप में ही पूर्ण है। पुरुषवादी मानसिकता के अनुसार स्त्री के शरीर पर अपना हक़ जताना, उसे यौन हिंसा का शिकार बनना,उसे प्रताड़ित करके अपनी मर्दानगी साबित करना ही काम है। ट्रांसजेंडर समुदाय यह नहीं कर सकता है इसलिए उसे नामर्द, छक्का, गांडू आदि अपमानजनक शब्दों से नवाज़ा जाता है| 

ट्रांसजेंडर समुदाय के यौन सम्बन्ध को एक बीमारी या गलत लत माना जाता है, क्योंकि पुरुष को स्त्री से ही शारीरिक संबंध बनाने चाहिए, रुढिवादी समाज में पुरुष का पुरुष से शारीरिक संबंध पाप माना गया है। स्त्री का यौन शोषण करना कोई पाप नहीं है, परन्तु किसी पुरुष का अन्य पुरुष के साथ रज़ामंदी से किया गया सेक्स अपराध घोषित किया जाता है, क्योंकि पुरुषप्रधान समाज में स्त्री का लैंगिक उत्पीड़न करना मर्दानगी का सूचक है।

‘कामसूत्र’ के अनुसार समलैंगिकता की संस्कृति दक्षिण भारत में प्रचलित थी। वैकल्पिक यौनिकता के लोग जनाना, ट्रांसजेंडर, समलिंगी पुरुष गुदा मैथुन द्वारा काम का आनंद लिया करते हैं। रुथ वनिता ने अपनी पुस्तक ‘सेम सेक्स लव इन इंडिया’ में इसका उल्लेख किया है। ‘कामसूत्र’ से एक उदाहरण उन्होंने  प्रस्तुत किया है

“Copulation below, in the anus, is practice by the people of the south. There is no pejorative tone or implication here”

दक्षिण में इस योनिकता को भी सामाजिक स्वीकृति थी। इसे सहज व स्वभाविक माना गया था, उत्तर में इसे अपराध माना गया है। ‘मनुस्मृति’ के अनुसार गुदामैथुन में सहभागी पुरुष को जात से बहिस्कृत करने का दण्ड दिया गया है। इस प्रकार की काम क्रीडा को हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में कुकर्म और अछूत माना गया है।

वैदिक कालीन न्याय एवं धार्मिक ग्रंथों में अनार्यों तथा ट्रांसजेंडर को अछूत माना गया था। इससे यह पता चलता है कि ट्रांसजेंडर समुदाय का गुदामैथुन में सहभागी होना उन्हें अछूत ठहरता है। इस प्रकार की योनिकता को सामाजिक स्वीकृति ना होने के कारण उनके मानवीय अधिकारों का उल्लंघन होता है।

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