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फाइट लाइक सोल्जर्स, डाई लाइक चिल्ड्रन: युद्ध में मारे जाने वाले बाल सैनिकों की कहानी

‘फाइट लाइक सोल्जर्स, डाई लाइक चिल्ड्रन’ ये लाइन पढ़ने के बाद आपके क्या दिमाग में क्या आता है? मैं अपनी बात करूं तो लगा किसी आदर्श सैनिक की बात हो रही है जो दुश्मन का सामना करते हुए हंसते-हंसते जान दे देता है।

हिंसा और लड़ाइयों के महिमामंडन के लिए हक, देशभक्ति या राष्ट्रवाद आदि शब्दों का इस्तेमाल कितना आसान होता है ना! आखिर वो कौन लोग हैं जिनके फायदे और नुकसान के बाज़ारों में जाने इतनी सस्ती होती हैं? ‘फाइट लाइक सोल्जर्स, डाई लाइक चिल्ड्रन’ एक डॉक्युमेंट्री है जो इन्हीं बाज़ारों की बात करती है और अफ्रीका के चाइल्ड सोल्जर्स यानि कि बाल सैनिकों के मुद्दे को उठाती है। यह डॉक्युमैंट्री ले. जनरल रोमियो एंटोनियस डलेयर की किताब ‘दे फाइट लाइक सोल्जर्स, दे डाई लाइक चिल्ड्रन’ पर आधारित है, जो उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर लिखी थी।

कनाडा के ले. जनरल डलेयर 1993 के अंत में अफ्रीकी देश रवांडा में संयुक्त राष्ट्र शांति सेना के मिशन UNAMIR (United Nations Assistance Mission for Rwanda) का, मेजर जनरल के रूप में हिस्सा बने थे, साथ ही 1994 में अप्रैल से जुलाई महीनों के बीच रवांडा में हुए तुत्सी नरसंहार के साक्षी भी। इस नरसंहार में 100 दिनों में मारे गए लोगों की संख्या करीब 8 लाख बताई जाती है।

लेकिन, यहां हम इस नरसंहार की नहीं बल्कि बाल सैनिकों यानि कि चाइल्ड सोल्जर्स की बात करेंगे, जो अफ्रीका के कांगो (डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो या डीआरसी), सूडान, साउथ सूडान, माली, नाइजीरिया और सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक आदि देशों के अलावा मध्य-पूर्व एशिया, दक्षिण एशिया और दक्षिण अमेरिका के कई देशों में एक बड़ी समस्या है। आंकड़ों की बात करें तो केवल अफ्रीकी देशों में ही बाल सैनिकों यानि 18 साल से कम उम्र के सैनिकों की संख्या लाखों में है।

इस मुद्दे पर मेरी समझ भी सीमित ही है, लेकिन हमारे आम जीवन की चर्चाओं से लेकर सोशल मीडिया पर बड़ी-बड़ी बहसों के बीच इस मुद्दे पर विरले ही कुछ देखने को मिलता है। शायद यही कारण है कि मैंने इसपर लिखने के बारे में सोचा। अगर आप भी इस मुद्दे पर मेरी ही तरह अनजान हैं तो इस डॉक्युमेंट्री को ज़रूर देखें, काफी सारी नई जानकारियों के साथ इस मुद्दे पर एक समझ बनाने में भी यह काफी मददगार साबित होगी।

https://www.youtube.com/watch?v=RrXFdXloS2c

इस डॉक्युमेंट्री के कई ऐसे दृश्य हैं, जो सोचने पर मजबूर कर देते हैं जिनमें से एक खास हिस्से का ज़िक्र मैं यहां ज़रूर करना चाहूंगा। इस हिस्से में एक टीवी इंटरव्यू में एक बड़ी राजनीतिक नेता गृहयुद्ध और हिंसक संघर्षों से जूझ रहे अफ्रीका और मध्य-पूर्व एशिया के देशों में बड़े होने वाले 3 साल से ज़्यादा उम्र के बच्चों के अबोध और मासूम होने को ही सिरे से नकार देती हैं।

डॉक्युमेंट्री में जनरल डलेयर अपने उन निजी अनुभवों और अफ्रीका में बिताए समय की बात करते हैं, जिसके बाद बाल सैनिकों के मुद्दे पर काम करने को उन्होंने अपना मकसद बना लिया। इस मुद्दे की संवेदनशीलता से लेकर इसकी सामाजिक और आर्थिक जटिलताओं और विश्व समुदाय के उदासीन रवैये पर वो खुलकर बात करते हैं।

सिनेमा हमेशा से ही ज़रूरी मुद्दों पर बात करने का एक सशक्त ज़रिया रहा है, जो बाल सैनिकों के मुद्दे पर मेरी जानकारी और समझ का अहम स्त्रोत भी बना। पहली बार बाल सैनिकों की समस्या के बारे में मुझे फिल्म ‘ब्लड डायमंड’ से पता चला था जो सिएरा लियोन की पृष्ठभूमि पर बनी थी। इसके अलावा ‘बीस्टस ऑफ नो नेशन’ भी एक और बेहतरीन फिल्म है जो बाल सैनिकों के त्रासद जीवन की तस्वीर सफलतापूर्वक उकेरती है।

अब सोचने वाली बात है कि हम इस मुद्दे पर कोई बात क्यों नहीं करते हैं? क्या इराक, यमन, सीरिया, म्यानमार और ऊपर लिखे देश ही इस समस्या से जूझ रहे हैं? क्या कश्मीर में पत्थर फेंकने वाले और हथियार उठाने वाले बच्चे इस समस्या का हिस्सा नहीं हैं? या शायद देश के पूर्वोत्तर के राज्यों और नक्सली हिंसा से प्रभावित देश के हिस्सों में सक्रिय अलगाववादी गुट 18 साल से कम उम्र के बच्चों को अपने खूनी कैंपेन का हिस्सा नहीं बनाते! या शायद इन सबसे हमें कोई खास फर्क नहीं पड़ता।

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