Site icon Youth Ki Awaaz

सिद्धार्थ शंकर की कविता: ‘हाथ से निकली लड़कियां’

ज़माना तुम्हें देखता है

कुछ विस्मय, कुछ घृणा तो कुछ भय से

इसलिए कि तुम वो नहीं जो तुमसे आशा की गयी थी

जो तुम्हें ज़माना बनाना चाहता था

तुमने उस से बग़ावत की और बन गयी

वो जो तुम बनना चाहती थी।

 

तुम्हें अच्छा कहा जाता अगर तुम

अपना सर ढंक के उसे झुका लेती

रिवाज़ों, संस्कारों की पाषाण मूर्ति के सामने;

अपने सपनों को देखने की ज़िम्मेदारी देती बुज़ुर्गों को

या उनके सपनों को अपनी ज़िम्मेदारी मानती

लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया।

 

तुमसे आशा की गयी थी कि

तुम खानदान का सम्मान बनो

अपने आत्मसम्मान की कीमत पर;

तुम उड़ो तो ज़रूर लेकिन पतंग की तरह

जिसकी उड़ान सीमित, नियंत्रित होती है

लेकिन तुम उन आशाओं के विपरीत गयी।

 

तुमने चुना किसी की बेटी, बहु, प्रेमिका, माँ से ऊपर

खुद का अस्तीत्व बनाये रखना

जिस वजह से तुम पर लगे इल्ज़ाम

ग़ैर जिम्मेदार, स्वार्थी, कठोर होने के

मानो जुर्म हो खुद के लिए जीना तुम्हारा

लेकिन तुमने परवाह नहीं की उसकी।

 

तुमने नहीं माना कि किसी का भविष्य

तय करे तुम्हारा भी भविष्य

तुमने गला नहीं घोटा अपनी महत्वकांक्षाओं का

जैसे तुम्हारी माँ ने किया था शायद;

सब चाहते थे तुम में तुम्हारी माँ को देखना

लेकिन तुम तुम्हारी माँ जैसी नहीं बनी।

 

तुमने चुने रास्ते वो जो तुम्हारे लिये सही थे

तुमने किये वो फैसले जो तुम्हारे हक़ में थे

तुम्हें नहीं मानी वो किताबें जो कहती थी

कि तुम्हारा जीवन त्याग है, बलिदान है

तुमने हासिल करने की ठानी वो

जिसपे तुम्हारा हक़, जिसमे तुम्हारी मेहनत है।

 

तुम बन गयी बिगड़ी हुई लड़कियां

हाथ से निकली हुई लड़कियां

जिसकी परछाई से भी बचाती माँए अपनी बेटियों को

जिनके नाम की कहानियां सुनाई जाती है

भूतों की कहानियों जैसे छोटी बच्चियों को

और कहा जाता इन सी मत बनना।

 

लेकिन तुम्हारा शुक्रिया बिगड़ी हुई लड़कियों

इन सब के बावजूद ऐसी होने के लिए जैसी तुम हो

शुक्रिया देने के लिए अपनी कहानियां मुझे

जो मैं अपनी बच्चियों को सुनाऊंगा और कहूँगा

मैं नहीं कहता कि इन जैसी ही बनो तुम

        मैं चाहता हूं तुम इनसे सीखो बनना वो जो तुम बनना चाहती हो।


यह कविता पहले द लास्ट पेज पर प्रकाशित की जा चुकी है।

Exit mobile version