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“किसानों, दलितों की हत्या, दंगे, बदहाल न्याय व्यवस्था, ये है देश की बदलती तस्वीर”

टीवी पर एक न्यूज़ रिपोर्ट देखते वक्त प्रधानमंत्री मोदी का 2014 के लोकसभा चुनाव के दरम्यान का एक बयान देखा, जिसे मैंने एकदम ध्यान से सुना और समझा भी। इस बयान में मोदी जी ने कुछ ऐसा कहा था, “मित्रों आपने कॉंग्रेस को 60 साल दिए मुझे बस 60 महीने दीजिए मैं आपकी तकदीर और तस्वीर दोनों बदल दूंगा।” इसे सुनने के साथ ही मैं अचानक भौचक्का रह गया। आंखों के सामने एक फिल्मी पट्टी सी चलने लगी और कई घटनाओं की तस्वीरों के साथ वो कहानी सी लगने लगी, हकीकत पर आधारित कहानी।

जी, तो शुरुआत हुई सत्ता के गलियारे नई दिल्ली स्थित लुटियन्स से महज़ 50 किलोमिटर दूर ग्रेटर नोएडा के बिसाहड़ा गांव से। जहां देश के मुसलमानों को सुधारने के लिए एक मोरल पुलिसिंग का आगाज़ हुआ और मोहम्मद अखलाक के घर पर फ्रिज में मिले मांस ने उसे इस दुनिया से विदा कर दिया। इस पुलिसिंग का नमूना सभी को शायद भा गया और एक-एक करके इसका क्रियांवन देश के अनेकों हिस्सों में हाने लगा।

झारखंड में दो लोगों को पेड़ पर लटका दिया गया, मध्य प्रदेश में एक औरत को ट्रेन से खींचकर पीटा गया, जुनैद के खून से बल्लभगड़ स्टेशन को रंगा गया और ये एकरंगे धारी यहीं नहीं रूके, भगवा रंग का झंड़ा लेकर चल पड़े उदयपुर अदालत में झंड़ारोहन के लिए उस शंभूलाल रैगर के समर्थन में जिसने एक मुस्लिम मज़दूर की जान ली थी। खुद एकरंगे झंड़े को लेकर ये हत्यारी भीड़ बाकियों को राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाते चले जा रहे थे।

यहीं से दूसरी तस्वीर उभरी मीडिया की, जो कि तनिक भी पीछे नहीं थी इन राष्ट्रवादियों से कंधे से कंधा मिलाकर चलने में। जो मीडिया 2014 के पहले यूपीए-2 के सरकार के समय, भ्रष्टाचार, लोकपाल, निर्भया, सूचना का अधिकार जैसे मसलों का सवाल उठा रही थी और डटकर खड़े होकर सरकार पर कड़े से कड़ा सवाल दाग रही थी, उसी मीडिया ने पैनल पर फर्ज़ी धर्म गुरूओं का धंधा शुरू करा दिया और नेताओं की कमी पूरी करने की होड़ में स्वयं ही जहीरीले बोल बोलने लगे। कभी तीन तलाक की आड़ में मुस्लिमों को घेरा तो कभी किसी मौलवी-उलेमा के बयान को मुस्लिम रूढ़ीवादी सोच से जोड़ दिया।

फिर दस्तक दी तीसरी तस्वीर ने, जो कि मुंबई के दलित आंदोलन से शुरू होकर दलितों के भारत बंद पर आ पहुंची। ऊना में दलितों के शरीर पर पड़ी बेल्ट की मार से गूंजी एक-एक आवाज़ ने समूची मानवता को झंकझोर कर रख दिया। इसकी आवाज़ इतनी थी कि सारा समाज बहरा होता चला गया और राजस्थान के भीलवाड़ा में, झुंझुनु में, उत्तर प्रदेश के कासगंज में दलित दूल्हे को जब घोड़े पर चढ़ने नहीं दिया गया और पीटा गया तो इसे बेहद ही आसानी से नज़रअंदाज कर दिया गया। तभी तो कासगंज के ज़िलाधिकारी भी यह कहने से नहीं चूंके कि शादी में धूमधाम से बारात निकालने की क्या ज़रूरत है।

धड़ाम से चौथी तस्वीर धीरे-धीरे आकार लेने लगी, धड़ाम से इसलिए क्योंकि उसकी एक हलचल के हो जाने से लोकतंत्र के विश्वास का डगमगाना काफी था, ऑर्डर-ऑर्डर की तस्लीमें भरते जजों को मीडिया के सामने आना पड़ा और बकायदा देश के न्यायिक प्रशासक मुख्य न्यायाधीश के कार्यों पर अनिश्चितता ज़ाहीर की गई। सरकार का अपना रूख बेहद डराने वाला था, उसने न्यायपालिका को बांधने के लिए एनजेएसी लाकर जजों की नियुक्ति की चाबी को अपने हाथ में लेने की नाकाम कोशिश की, फिर देश के न्यायतंत्र को सिकोड़ने की कोशिशों के मद्देनजर जजों की नियुक्ती को रोकना शुरू कर दिया, जहां देश की अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से ज़्यादा मामले लंबित हैं, वहीं सरकार की ये कारगुज़ारी से न्यायिक प्रक्रिया को और भी धक्का लग रहा था, एक मुख्य न्यायाधीश के तो आंसू भी झलक गये, वो भी प्रधानसेवक और देश के किस्मत निर्माता मोदी जी के सामने, फिर भी सरकार ने पक्के तौर पर न्यायपालिका को क्षति पहुंचाने के लिए कसम खा ली और वर्तमान के मुख्य न्यायाधीश के आसरे समूचे व्यवस्था को पोंगा यानि पैरालाइस करने की भरसक प्रयास की।

पांचवी व आखरी पिक्चर (क्योंकि इसके बाद छाती पर तकदीर और तस्वीर बदलने का भार बढ़ता जा रहा था, जिसे संभालना मेरे बस में नहीं था) ये पिक्चर भूख को मिटाने वालों से बनी, अन्नदाताओं के भूखे मरने से। मध्य प्रदेश के मंदसौर में ढ़ाय-ढ़ाय गोलियां चलती हैं और झटके में ही 5 किसान मारे जाते हैं। फसल के नुकसान की भरपाई की, कर्ज़ माफ करने की, न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग को लेकर सड़क पर उतरे किसानों को सरकारी दमन का गिफ्ट मिला। महाराष्ट्र में लाखों-लाख किसान चकाचौंध भरे मुंबई जा पहुंचे। अपने किले में इतनी बड़ी तादाद में भीड़ को देख सरकार के हाथ पांव फूले और उनकी मांगों को मान लिया गया, लेकिन जैसे ही चकाचौंध किले से दूर वे अपनी खुरदूरी जमीन पर लौटे, सरकार फिर से आंख मूंदे सो गयी। राजस्थान में महारानी के रहते किसानों ने उम्मीद ही बांधनी छोड़ दी। और गुजरात में चुनावी राजनीति में ग्रामीण भारत ने अपना ज़ोर दिखाया तो साहेब को कई दफा अपनी हेलिकाफ्टर को गुजरात में उतारना पड़ा।

अब इससे इतर देखते हुए आगे बढ़े तो क्या पा लिया हमने ये सब बताकर ? जब आज की यथास्थिति पर ही गौर करें तो दिल्ली में मज़ार को मंदिर में तब्दील कर दिया जाता है सहारनपुर में फिर से दबंग जातियों द्वारा दलित की हत्या कर दी जाती है। जस्टिस चेलमेश्वर अब भी मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर न्यायपालिका को बचाने की गुहार लगा रहे हैं। किसान अब भी अपनी उगायी हुई फसल को सड़क पर फेंकने को मजबूर हैं। तो जब यहीं अगर आज का सच है और बीते चार वर्षों में यही होता आया है तो क्यों ना माना जाये प्रधानसेवक मोदी ने वक्त से पहले ही  देश की तकदीर (नकारात्मक अंदाज़ में) और (भयावह अंदाज़ में) तस्वीर दोनों ही बदल दी है।

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