आसाराम प्रकरण काफी सालों से देखती और सुनती चली आ रही हूं आपसब की तरह, हां आप सब जिसमें से कुछ भक्त हैं, कुछ विरोधी भी हैं उक्त व्यक्ति के।
मेरे हिसाब से आसाराम कोई इंसान नहीं है बल्कि एक प्रवृति है जिसको पोसने का काम हमने-आपने किया है। वो प्रवृति जिसका बाज़ारीकरण करने में हमने-आपने, कुछ लोगों की मदद की। कभी हमारी श्रद्धा कभी अंधविश्वास ने जिससे बढ़ावा देने का काम किया। बेहतरीन खाद पानी का काम हमारे श्रद्धा रुपी डर ने किया और धीरे-धीरे ये बीज एक विशाल पेड़ बनकर हमारे बीच खड़ा हो गया।
इतना कुछ होने के बावजूद आज भी ऐसे अंधभक्त हैं जो इस प्रवृति को बिना सोचे समझे पोसते चले आ रहे हैं ये कैसा विश्वास है? ये कैसा भरोसा जो हमे उजाले से अंधेरे की ओर धकेलता चला जा रहा है और हम गिरते चले जा रहे हैं।
छोटी थी तब अक्सर आस्था चैनल पर आसाराम का प्रवचन चलता हुआ देखती थी, मासूम मन उस समय भी सोचता था कि ये कैसा संत है? जो AC में बैठ कर पगड़ी बांध कर औरतों को छू-छू कर प्रवचन देता है। अपनी अम्मा को कहती भी लेकिन अम्मा डांट देती। आज लगता है कि जो उस छोटी सी उम्र में मेरी नन्ही आंखे देख सकती थी, मेरी अम्मा की अनुभवी आंखों को क्यों नही दिखा? शायद उस समय जो पैकिंग थी वो इतनी आकर्षक थी की आंखें चौंधिया जाती थी।
एक नया ट्रेंड शुरू हुआ,उसी समय से, धीरे-धीरे संतों के चेहरे बदलने लगे। जैसे कोई नया साबुन आने से कंपनी पुराने साबुन का रंग-खुश्बू बदल देती है या आजकल सफेद नमक और रिफाइंड में होड़ है, ठीक वैसे ही होड़ लगी थी रामकथा वाचकों की प्रवचन देने वाले नए-नए संतों की।
जब बाज़ार में कुछ नया माल आता है तो अच्छा व्यापारी अपने पुराने माल की जगह बनाने के लिए या ये कह लो बचाने के लिए नए-नए प्रयोग करने लगता है, आसाराम ने भी यही किया, कभी नाचकर तो कभी गाकर।
लेकिन फूहड़ता के जो मापदंड इसने बनाए वो पूरे संत समाज को शर्मशार कर गया। अब कहते है ना कि कुछ लोग जाते-जाते भी समाज को कुछ ना कुछ दे जाते हैं। समाज के संस्कारों का इतना अहित करने के बावजूद भी यह इंसान हमारे जैसे युवाओं को अन्धविश्वास के एक बंधन से मुक्त कर गया, और एक सीख भी दे गया, कि समाज में जो भी कुरीतियां या अन्धविश्वास हैं उसके पालक हम ही हैं।
अगर हम ना चाहे तो इनके जैसा कोई भी इंसान हमारे संस्कारों से नहीं खेल सकता। जब भी ऐसे किसी व्यक्ति का बाज़ारीकरण हुआ उसके ज़िम्मेदार हम ही थे, हम ही हैं हम ही रहेंगे। क्यूंकि हम इंसान को नहीं समाज में एक प्रवृति को पोसते हैं।