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न्याय व्यवस्था को विकास की बलि चढ़ते आदिवासियों की आह सुनाई क्यों नहीं देती

इस धरती में सबसे अधिक जैव विविधता, जल स्त्रोत, और जंगल बचा है तो वह आदिवासियों के रहवासी क्षेत्र में। आदिवासियों को ये भारी भरकम शब्दों जैसे जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वॉर्मिंग, सस्टेनेबिलिटी के मतलब मालूम नहीं होते हैं। परंतु उनका पारंपरिक ज्ञान और अनुभव प्रकृति के दर्द को समझने का हुनर प्रदान करता है। यही कारण है कि सदियों से दुनियाभर के आदिवासी जल, जंगल, ज़मीन, अपनी संस्कृति और परम्परा को सहेजते आ रहे हैं और संकट आने पर प्रकृति के इन अनमोल धरोहरों के लिए लड़ भी आ रहे हैं करोड़ों ने अपनी बलिदानी दी है तब जाकर इतना जल, जंगल, ज़मीन आप देख पा रहे हैं, शुद्ध पानी पी पा रहे हैं शुद्ध वायु ले पा रहे हैं।

दुनिया के तमाम देशों के लोग क्या कर रहे हैं

विद्यार्थी खूब पढ़-लिखकर झूठे विकास की इबारत लिख रहे हैं। याद रहे विकास, प्रकृति के विनाश का दूसरा नाम है। इन्हीं विकसित और विकासशील देशों में पढ़ लिखकर शोधार्थी पैदा होते हैं, वे पर्यावरण से संबंधित तमाम मुद्दों पर शोध करते हैं, काम करते हैं और हर साल खुद ही पुरस्कार बांटते रहते हैं। सालों पहले से आदिवासी जीवन दर्शन, परंपरा, रीति रिवाज़, दुनिया के वैज्ञानिकों और शोधार्थियों के लिए कौतूहल के विषय रहे हैं और शायद आज भी कौतूहल के ही विषय हैं क्योंकि आदिवासियों के जीवन दर्शन को कोई समझना ही नहीं चाहता।

आदिवासियों पर सबसे ज़्यादा शोध किये जाते हैं, थीसिस लिखी जाती है, पीएचडी की जाती है और वाहवाही बटोरी जाती है। अब तक आदिवासियों के अद्भुत और अद्वितीय ज्ञान को वो स्थान दिला सकें ऐसी हिम्मत किसी की नहीं हुई, सारे सम्मान और पुरस्कार के भूखे हैं। वरना दुनिया की तमाम बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटी में ट्राइबल स्टडी सेंटर्स होते उनमें आदिवासी लोग विद्यार्थियों को प्रकृति और प्रकृति सम्मत जीवन जीने की कला सिखाते। दुनिया वालों को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाये उतना ही अच्छा है,आदिवासी ही इस दुनिया को खत्म होने से बचा सकते हैं अन्यथा कोई नहीं।

हाल ही में इस दुनिया से विदा हुए ख्यात वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग को भूलना नहीं चाहिए जिन्होंने कहा है कि दुनिया 100 साल में खत्म हो जाएगी, आज के कंडीशन में देखें तो ऐसा लगता है कि 100 साल भी ज़्यादा हैं उससे पहले ही हम सब मरने वाले हैं।

दुनिया भर में जैव विविधता, ग्लोबल वॉर्मिंग, जलवायु परिवर्तन पर बड़े-बड़े सम्मेलन होते हैं दुनियाभर के प्रतिनिधि, वैज्ञानिक और शोधार्थी उसमें भाग लेते हैं, शोध पढ़ते हैं, भाषण देते हैं, बहस करते हैं पर कोई खास और दूरदर्शी निष्कर्ष निकाल नहीं पाते हैं। दुनिया के वैज्ञानिक इन समस्याओं पर चिंता कर करके मर जाते हैं और समस्याएं हैं कि बढ़ती ही जाती हैं। ये गुणीजन सस्टेनेबिलिटी का सीधा सा मतलब नहीं निकाल पाते जिसका मतलब आदिवासी सियान ( बुजुर्ग) बड़े आसानी से समझा देता है, “प्रकृति अपने पूरे चक्रण में जितना कुछ दे उसी में संतुष्ट होने को सस्टेनेबिलिटी कहते हैं।”

विकास, विनाश की जड़ है

आमतौर पर कहा जाता है कि आदिवासियों का विकास नहीं हो पा रहा है, उन्हें देश की मुख्यधारा में लाना चाहिए, आदिवासियों में कुपोषण बेतहासा है। शैक्षणिक स्तर बहुत नीचे है, विदित हो कि इस संबंध में मैं अपने पिछले लेख में लिख चुका हूं।

आदिवासी विकास विरोधी नहीं हैं, वे भी उन्नति चाहते हैं, दरअसल वे दुनिया को यह समझना चाहते हैं कि विकास से प्रकृति को कोई नुकसान ना हो। मनुष्यों, पशु पक्षियों और दूसरे जीवों तथा प्रकृति के बीच संतुलन बना रहे। इतनी सी बात को ये दुनिया वाले समझ क्यों नहीं पा रहे हैं। अब अगर विकास जंगल काटकर, खनिज का बेतहाशा उत्खनन करके, बड़े-बड़े कल कारखाने लगाकर, उद्योग स्थापित करके, सड़क बिल्डिंग बनाकर, बड़े-बड़े बांध बनाकर करना चाहते हों तो आदिवासी ऐसे विकास का विरोध करेंगे ही। क्योंकि आदिवासियों को उनकी खुद नहीं पड़ी है पूरी कायनात की पड़ी है।

पिछले कुछ सालों से इस विकास का असर दिखने लगा है लोगों का शहरों में जीना मुहाल है, शुद्ध हवा नहीं, शुद्ध पानी नहीं और शुद्ध खाना भी नहीं। फिर भी देखिए कैसे शातिर सरकारें और पूंजीपति लोग प्रकृति के पुजारियों का मर्दन करने में जुटे हुए हैं।

झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और महाराष्ट्र का गढ़चिरौली क्षेत्र छावनी में तब्दील है, यहां नित नए विकास के घातक कदम सरकारें और पूंजीपतियों द्वारा उठाये गए।

22 मई की ही घटना ले लेते हैं

तमिलनाडु के तूतीकोरिन नामक स्थान पर जहां वेदांता ग्रुप का स्टायरलाइट कॉपर प्लांट खनन कर रही है, खनन के परिणामस्वरूप वहां के जल स्त्रोत, कृषि भूमि ज़हरीली हो रही है, पेड़ पौधे मर रहे हैं, लोग बीमार हो रहे हैं। वहां के आदिवासियों और रहवासियों ने वेदांता ग्रुप के खिलाफ ज़ोरदार विरोध प्रदर्शन किया। इस विरोध प्रदर्शन को रोकने के लिए सरकार और पूंजीपतियों ने पुलिस फायरिंग करवा दी, जिसमें 11 लोग मारे गए और 95 लोग घायल हुए, मरने वालों और घायलों की संख्या बढ़ने की आशंका है। इन सबके बीच एक 18 वर्षीय आदिवासी लड़की की हृदयविदारक मौत कंपा देती है, जिसके मुंह में पुलिस वालों ने AK47 डाल कर गोली से छलनी कर दिए।

प्रकृति के पालनहार यूं मारे जाते हैं और देश आह भी नहीं करता, कहां है लोकतंत्र, कहां हैं संविधान, कहां हैं राष्ट्रपति और कहां है न्याय व्यवस्था जिन्हें विकास की बलि चढ़ते आदिवासियों की आह सुनाई नहीं दे रही है।

अरे देशवासियों क्या तुम मुर्दा हो अगर नहीं हो तो जिंदा होने का सबूत तो दो, देखो धरती मर रही है, वायुमंडल को दमा अस्थमा हो गया है, जल स्त्रोत तड़प रहे हैं पेड़ पौधे जीव जंतु जल रहे हैं और देश बीमार हो गया है।।

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