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क्या मातृत्व के लिए महिला होना ही ज़रूरी है?

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मई 13 को पूरे विश्व में मातृत्व दिवस मनाया जाता है। आप सभी ने भी मनाया होगा। विश्व की माताओं के मातृत्व के सम्मान में यह दिवस मनाया जाता है। अब सवाल यह है कि क्या मातृत्व मात्र महिलाओं में ही होती है।

माँ की मातृत्व का पूरी दुनिया में किस तरह गलत उपयोग होता है यह हम सब जानते हैं। उसके मातृत्व के कारण उसके वजूद को समेट कर रख दियाा जाता है। माँ के मातृत्व का सम्मान करना चाहिए परन्तु रूढ़िवादी पुरुष सत्तात्मक समाज में माँ के मातृत्व का मात्र उपभोग किया जाता है। उसको घर में काम करने और नौकर की तरह बर्ताव तक ही सिमित रखा जाता है। संसार का हर प्राणी अपने मातृत्व का आनंद लेता है परन्तु बात जब मनुष्य की आती है तो महिलाओं को अपना मातृत्व ढोने के लिए मजबूर किया जाता है।

समाज की विडम्बना को यदि देखा जाए तो मातृत्व महिलाओं पर लादा गया एक सामाजिक बोझ है। बच्चे को जन्म देने और उसको स्तनपान कराने के अलावा बच्चे के पोषण के सारे अन्य काम किसी भी लिंग का व्यक्ति कर सकता है परन्तु स्त्री विरोधी समाज में इन सारी ज़िम्मेदारियों को महिलाओं पर जबरन थोपा जाता है।

एक पुरुष भी माहवारी के समय रक्त लगे अपनी बेटी के अन्दरूनी कपड़ों को साफ कर सकता है परन्तु पुरुषवादी मानसिकता उन्हें यह करने से रोकती है, क्योंकि पुरुष के मन में स्त्री के प्रति एक हीन भावना होती है। पुरुषवादी मानसिकता का शिकार बनी महिलाएं भी इसे पुरुष का अपमान या पाप समझती हैं।

मातृत्व की संकल्पना को पुरुष प्रधान मानसिकता ने पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है। मातृत्व को मात्र महिलाओं तक सीमित रखना पुरुषवादी विचारधारा का एक कूटनीतिक षडयन्त्र है। इसी के चलते मातृत्व महिलओं के लिए एक सामाजिक बोझ बना दिया गया है।

समलिंगी, अंत:लिंगी, उभय लिंगी, परस्पर परिवर्तित लिंगी एवं अलिंगी तथा स्त्री और पुरुष के आलावा किसी भी लिंग वैविध्यता के व्यक्ति के समुदाय को ‘क्वियर’ कहा जाता है। मातृत्व की संकल्पना को सही मायने में विकसित करने में क्वियर विमर्श की अहम भूमिका रही है। इस समुदाय के लोगों को कई देशों में बच्चे को दत्तक लेने का अधिकार नहीं है। यह लोग संतान के बिना जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। इनमें मातृत्व नहीं होता है ऐसी संकुचित मानसिकता की वजह से इन्हें अपने मातृत्व का आनंद लेने के अवसर से वंचित रखा जाता है।       

यदि भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय की संस्कृति की महत्ता को स्वीकार किया जाए तो हमें यह मानने के लिए मजबूर होना पड़ेगा कि मातृत्व किसी एक विशेष लिंग के नीजी अंगों का मोहताज नहीं होता है। ट्रांसजेंडर समुदाय बच्चे को जन्म तो नहीं दे सकता है लेकिन जन्मे हुए बच्चों को मात्रुत्व प्रदान कर सकता है। ‘दी ट्रुथ अबाउट मी, अ हिजरा लाइफ स्टोरी’ आत्मकथा की रचनाकार ए.रेवती ने मातृत्व के अभाव में जीने वाले बच्चों की माँ बन कर उन्हें मातृत्व का सहारा दिया है। इन बच्चों को उन्होंने अपनी संतान के रूप में स्वीकार किया है। मातृत्व पर किसी एक विशेष लिंग के आधिपत्य को झुठलाने में क्वियर विमर्श सफल रहा है।

‘सखी चार चौगी’ गैर सरकारी संगठन की अध्यक्ष गौरी सावंत, एक ट्रांसजेंडर सामाजिक कार्यकर्ता है उन्होंने यह साबित कर दिखाया है कि मातृत्व किसी एक विशेष लिंग के निजी अंगों का मोहताज नहीं होता है। उनके द्वारा स्थापित ‘आजी च  घर’ (नानी का घर) मातृत्व से वंचित बेसहारा बच्चों को मातृत्व प्रदान करने की एक अनोखी पहल है। गौरी सावंत एक बेटी की मां भी है। वह पूर्णतः अपने मातृत्व का आनंद ले रही है। उन्होंने जिस बच्ची को दत्तक लिया है वह एक महिला यौन कर्मी की संतान है। HIV के कारण उस महिला की मृत्यु हो चुकी है।

गौरी सावंत ने इंडिया टुडे के एक साक्षात्कार में कहा था “एक गे भी माँ हो सकता है, एक समलिंगी भी माँ हो सकता है ,एक ट्रांसजेंडर भी माँ हो सकता है, एक पुरुष भी माँ हो सकता है, एक लेस्बियन भी माँ हो सकती है। क्योंकि मातृत्व व्यक्ति के लैंगिकता से परे होता है।” मातृत्व का उद्भव मनुष्य के ह्रदय से होता है किसी विशेष लिंग के निजी अंगों से नहीं। इसलिए मात्रुत्व किसी विशेष लिंग के निजी अंगों का मोहताज नहीं होता है।

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