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पिछले जन्म के पाप-पुण्य जैसी अतार्किक बातों में क्यों फंसाता है धर्म?

ज़्यादातर धर्मों की यह मान्यता है कि आत्मा अनश्वर है और वह नश्वर शरीर के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज कराए रहती है। इसी मान्यता के कारण पुनर्जन्म की अवधारणा अस्तित्व में आयी। पुनर्जन्म कर्मों के सिंचित फलों के आधार पर तय होता है, ऐसा धार्मिक ग्रंथों द्वारा बताया जाता है। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, पुनर्जन्म, सिंचित कर्मों का फल जैसी मान्यताएं मानव के ज़हन में गहरी जड़ें जमाए हुए है।

उपरोक्त मान्यताओं पर सवाल उठाने वालों को प्रायः चार्वाकी, लोकायती व नास्तिक जैसे शब्दों से तिरस्कृत किया जाता है। लेकिन कुछ सवाल ऐसे हैं जो अनुत्तर ही रह जाते हैं। प्रायः हिंदू धर्म में विवाह का बंधन सात जन्मों तक माना जाता है लेकिन शायद यह कोई ही जानता होगा कि उसकी वर्तमान शादी पहले जन्म की है या आखिरी जन्म की। कहीं ऐसा तो नहीं कि सातवां जन्म यही हो और अगला जन्म बिछड़ने का जन्म हो। इसके अतिरिक्त एक सवाल यह उठता है जब हमें ना अगले जन्म की याद है ना पिछले जन्म की तो किस आधार पर यह मान लिया जाये कि पुनर्जन्म की अवधारणा सत्य ही है। आखिर किस आधार पर अगले जन्म की चिंता में इस जन्म में अपने शरीर पर कष्टों का बोझा ढोया जाए?

धर्म की अधिकतर मान्यताएं मौर्योत्तर व गुप्त काल के आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था की उपज है। क्योंकि उस काल मे उन सवालों का सामना करना पड़ा जो समाज के लिए नए थे और जिनकी व्याख्या इतिहास में नहीं थी। पुनर्जन्म की अवधारणा के पीछे हमारी सामाजिक व्यवस्था ज़िम्मेवार है लेकिन समर्थन उसको धर्म के माध्यम से मिलता है। निर्धन लोगों को यह विश्वास दिलाया गया कि उनकी निर्धनता का कारण वे स्वयं ही हैं। पिछले जन्मों के बुरे कर्मों का दंड उनको इस जन्म में भुगतना पड़ रहा है। इसलिए इस जन्म में अच्छे कर्म कर, आने वाले जन्म को बेहतर बनाओ।

इस व्यवस्था के होने से निर्धन लोग अपनी निर्धनता का कारण आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था को ना मानकर खुद को ही दोषी समझने लगते हैं। साथ ही निर्धनों को भगवान की भक्ति का मार्ग सुझाया गया जिसके माध्यम से वे पुण्य अर्जित कर सकते थे और धनी लोगों को मंदिर बनवाने को कहा गया। इसके अतिरिक्त उनको यह भी आश्वासन दिया गया कि उनके कष्टों को दूर करने हेतु स्वयं भगवान अवतार लेकर आएंगे। यहीं से मूर्तिपूजा व अवतारवाद का जन्म हुआ। इसी का परिणाम है कि आज भी बहुत से लोग भौतिकता का मोह छोड़ उसको ढूंढने में अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं जो अनिश्चितता के बादलों में छुपा बैठा है।

साथ ही धनी लोगों को बताया गया कि जैसे एक भक्त भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव रखता है वैसे ही उसको राजा या उसके ऊपरी सामंत के प्रति समर्पण का भाव रखना चाहिए और उसको राजा की हरेक आज्ञा का पालन व कर का भुगतान अपना कर्तव्य समझकर करना चाहिए। जिस तरह से सामंती व्यवस्था में हायरार्की बनी हुई थी, ठीक ऐसे ही देवताओं के मध्य बना दी गई। दो या तीन देवताओं को मुख्य देवता मानकर बाकी को गौण देवता की उपाधि दी गयी। इसका सटीक उदाहरण शिव परिवार है, जिसमें शिव को मुख्य देव व बाकी को गौण देवता माना गया है।  इस तरह से असंतोष को धर्म के माध्यम से दबा दिया गया।

ये धार्मिक मान्यताएं तो परिस्थितियों की उपज थी लेकिन वर्तमान में अब भी बहुत सी चीज़ें आपको देखने को मिलती होंगी जो आपकी समझ से परे होती है। अब यहां होता क्या है, आपकी समझ से परे, प्रत्येक चीज़ को आप जादू, कोई करिश्मा या भगवान का अस्तित्व की संज्ञा दे देते हैं। यहां हमारी मदद कार्ल मार्क्स का यह कथन  करेगा कि धर्म मानव मस्तिष्क जो न समझ सके उससे निपटने की कमज़ोरी है

कोई भी चीज़ जो हमारी समझ से परे है उस पर तर्कवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए ना कि उसको चमत्कार की संज्ञा देनी चाहिए। तर्कवादी दृष्टिकोण अपनाने से ही अाविष्कार से हमारा सामना होता है। समझ में ना आई किसी चीज़ को चमत्कार का नाम दे देने से अाविष्कार होने का मार्ग अवरुद्ध हो जाता  है और समाज एक नए ज्ञान से वंचित रह जाता  है।

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