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बिहार के इस वीडियो से साफ है कि महिला सुरक्षा का सवाल सिर्फ निजी नहीं राजनीतिक है

सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल करने के दौर में, अभी कुछ समय पहले सोशल मीडिया पर एक नया वीडियो धीरे-धीरे वायरल हो रहा है, जिसमें गांव में पंचायत ने तालिबानी फरमान सुनाया और  मार-मार की आवाज़ों के बीच लड़की को खंभे से बांधकर सरेआम पीटा जाता रहा है, जो बैचेन करने वाला है। यह किसी तालिबान के इलाके में बनाया गया वीडियों नहीं है, यह बिहार के बगहा के कथैया गांव की घटना का बनाया गया वीडियो है। वीडियो वायरल होने के बाद कुछ लोगों की गिरफ्तारी भी हुई है और मामला प्रेम-प्रसंग से जुड़ा बताया जा रहा है।

इसके पहले जहानाबाद की घटना भी बैचेन कर देने वाली थी, जहां एक नाबालिग लड़की के साथ यौन हिंसा का वीडियो वायरल हुआ था, वायरल वीडियो में खुलेआम सड़क पर एक साथ छह-सात युवक एक लड़की को पकड़कर उसके कपड़े उतारने की कोशिश करते नज़र आ रहे थे और उसके साथ दुष्कर्म की कोशिश कर रहे थे। खुलेआम इस तरह की तालिबानी समाज जैसी स्थिति पेशानी पर बल देकर सोचने को मजबूर करती है कि इस तरह की मानसिकता वाली भीड़ पर नकेल क्या केवल कानूनों को कठोर बना देने से संभव है?

यह उस राज्य के कानून-व्यवस्था और समाज का सूरत-ए-हाल है, जहां के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने हाल ही में शिक्षा में लड़कियों की बेहतरी के लिए वज़ीफे की घोषणाएं की है। इसके पहले भी सामाजिक कुरीतियों, दहेज, बाल-विवाह के लिए आधारभूत कोशिशें कर रही है, परंतु राज्य सरकार के अपराध के आंकड़े तमाम कोशिशों पर पानी फेर दे रही है। बीते कुछ सालों में बिहार में महिलाओं के खिलाफ़ होने वाले अपराधों में बेतहाशा इज़ाफा हुआ है, साल 2010  में ऐसे अपराधों की संख्या 6,790 थी तो 2016 में 12,783 हो गई है।

ये आंकड़े बिहार के सुशासन के दावों को खोखला सिद्ध करते हैं, जबकि राज्य सरकार का दावा है कि शराबबंदी के अभूतपूर्व फैसले के बाद राज्य में महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों में कमी आई है। सवाल यह भी है कि किसी भी लड़की के साथ दुर्व्यवहार करने से समाज बाज क्यों नहीं आ रहा है? वह यहीं तक नहीं रुका रहा, वीडियो बनाकर वायरल करने की हिम्मत भी दिखा रहा है। ज़ाहिर है सिर्फ अपराधियों पर ही नहीं तालिबानी मानसिकता वाली भीड़ पर भी नकेल कसने की ज़रूरत है।

इस तरह की घटनाएं बताती हैं कि जुल्म और हिंसा की वास्तविक जड़ें शोषण पर टिके हमारे समाज के अंदर है, इसका सीधा संबंध हमारे समाज के यथार्थ से है। जो उपभोक्ता संस्कृति के साथ मिलकर नए रूप में हमारे सामने रोज़ सामने आ रही है। हमारे समाज में फैली हुई विषमताएं आधी आबादी की स्थिति को अधिक कठिन बनाए हुए है। सामंती मूल्यबोध इस कदर समाज के अंदर जगह बना चुकी है कि आधी आबादी के साथ भेदभाव भरा व्यवहार ही स्वाभिमान मान लिया जाता है और संविधानिक अधिकारों को खुली चुनौती मिलती रहती है।

आधी आबादी को कमज़ोर या वीकर सेक्स मानने वाले समाज को कानून के डर के साथ-साथ समानता के समाजीकरण से ही लोकतांत्रिक बनाया जा सकता है। केवल भौतिक विकास मसलन, बेहतर सड़क बनाकर या बिजली-पानी या व्यवस्था के तमाम दावों को ही बेहतर सुशासन नहीं कहा जा सकता है, इसके साथ-साथ समाज के अंदर मौजूद सामंती परंपराओं का जड़-मूल से नाश के लिए भी ज़रूरी कदम उठाने की ज़रूरत है।

सुशासन कुमार के नाम से प्रसिद्ध मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को सरकारी नीतियों के खिलाफ इस तरह की दरिंदगी करने वाले अपराधियों को जंगलराज और सुशासन के बीच की पतली रेखा के मायने बताने ही होंगे। क्योंकि हर चुनाव में मतदान में आधी आबादी की बढ़ती भागीदारी में महिला सुरक्षा का सवाल निजी नहीं बल्कि एक राजनीतिक मामला है।

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