Site icon Youth Ki Awaaz

आदिवासी समुदाय को अब अपने सम्मान और अस्तित्व की लड़ाई खुद लड़नी होगी

भारत में सदियों से विभिन्न आदिवासी समुदाय निवास करते हैं और इन आदिवासी समुदायों के अपने रीति-रिवाज़, परम्पराएं, पहनावा और भाषाएं हैं। प्रकृति प्रेमी और सरल स्वभाव के होने के कारण ये शहरी वातावरण में खुद को सहज महसूस नहीं करते हैं। अतः ये जनजाति समुदाय अपने कबीलाई क्षेत्रो में, वन क्षेत्रों और ग्रामीण परिवेश में रहना ज़्यादा  पसंद करते हैं। यही कारण है कि भारत के सभ्य कहे जाने वाले समाज के लोगों को भारतीय आदिवासी समुदाय के बारे में ज़्यादा नहीं पता। पर जिस प्रकार से जंगल सिमटते जा रहे हैं, औद्योगीकरण बड़ी तेजी से हो रहा है, खनन व्यवसाय में जितनी आज तेज़ी आ रही है, इनसे सबसे ज़्यादा प्रभावित आदिवासी समुदाय ही हो रहा है।

देश में ‘विकास’ तो हो रहा है, लेकिन इस विकास में आदिवासी समुदाय को विस्थापित होकर कीमत चुकानी पड़ रही है। विकास के इस बयार में सभी आदिवासी समाज स्वंय को व्यवस्थित करने की पुरजोर कोशिश कर रहा है। आदिवासी समाज प्रारम्भ से ही कृषक समाज रहा है इस कारण व्यवसायिक और तकनीकी अनुभवों की कमी आदिवासी विकास में रोड़ा साबित हो रही है।
अब आदिवासी समाज को ‘प्रॉफिट’ और ‘लॉस’ के सिद्धांत को समझना बहुत ज़रूरी हो गया है। अब नई पीढ़ियों के युवाओं को व्यवसायिक क्षेत्र और नई तकनीक को अपनाकर अपने समाज की ‘आर्थ व्यवस्था’ को मज़बूत करना होगा। पारम्परिक खेती और जंगलों पर आश्रित एवं अपने सीमित साधनों से संतुष्ट रहने वाले जीवट जीवन शैली जीने वाले आदिवासी समुदायों को अब अपने कदम आगे बढ़ाने  होंगे। सदियों से आदिवासी समाज के पास जल-जंगल और ज़मीन का अधिकार रहा है लेकिन उनसे मिलने वाले लाभ से हमेशा ही वंचित रहे हैं। आज इनके पुरखों के धरोहर पर बाहरी लोगों का हस्तक्षेप बढ़ता ही चला जा रहा है।
आदिवासी समुदायों को अब अपनी विशेष संस्कृति, भाषा, और खान-पान से भारत के लोगों को परिचय खुद कराना पड़ेगा। और भारत के प्राचीन निवासी के रूप में अपने सम्मान और अस्तित्व की लड़ाई अब स्वंय करनी पड़ेगी। देश की सरकार को जनजातियों की समस्या से अंजान नहीं है, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाने के कारण भारत की कुछ प्राचीन जनजाति समुदाय विलुप्तता की कगार में पहुंच गई हैं।
भारत सरकार द्वारा “राष्ट्रिय जनजाति आयोग” का गठन इसी उद्देश्य से किया गया था ताकि आयोग भारतीय जनजाति समुदाय के विकास और हक की रक्षा कर सके। जिस प्रकार  महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, ओडिशा, झारखण्ड, जैसे जनजाति बहुल क्षेत्रों में आये दिन अखबारों में खबरें आती रहती हैं उसे पढ़कर बहुत दुख होता है कि सभ्य कहे जाने वाले समाज के बुद्धिजीवी और  प्रतिष्ठित लोग भारत के आदिवासी समुदाय पर होने वाले अमानवीयता पर चुप्पी साध लेते हैं।
टीवी मीडिया अपने कर्तव्य से मुंह मोड़कर केवल अपने मतलब के विज्ञापन और निर्थक खबरें निरंतर दिखाते रहती है। अब मीडिया पर भरोसा करने की ज़रूरत नहीं, बल्कि खुद आदिवासी समाज को अपना मीडिया खड़ा करने की ज़रूरत है। ताकि अपनी बात देश के एक-एक आवाम तक पहुंचा सके। आये दिन आदिवासी समाज के लोगों पर हो रहे अत्याचार को भारत की जनता तक पहुंचा सके और सरकार से उनके नैतिक कर्तव्यों के प्रति ज़िम्मेदारी को याद दिलाया जा सके। भारत के दोनों सदनों द्वारा देश का भविष्य तय होता है तो माननीय ‘लोकसभा’ और ‘राज्यसभा’ के गणमान्य सदस्यों को देश की जनता के प्रति उनके कर्तव्यों को स्मरण दिलाया जा सके।
अनुसूचित क्षेत्रों के प्रति ज़िम्मेदारी प्रदेश के राजपाल और देश के प्रथम नागरिक ‘राष्ट्रपति’ महोदय को आदिवासी क्षेत्र के विकास की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। लेकिन, किसी भी राजनितिक एजेंडे में कभी आदिवासियों के विकास का मुद्दा कभी नहीं रखा गया।
आदिवासी समुदाय के अपने विशेष क्षेत्र होने के बावजूद उनकी स्थिति किसी यायावर समाज की तरह हो गई है। छत्तीसगढ़ राज्य का बस्तर क्षेत्र उसका उदाहरण है। राज्य सरकार की मनसा आदिवासियों की ज़मीन की रक्षा करना तो कतई नहीं है, क्योंकि जितनी भी भूमि का अधिग्रहण जिन भी कारणों से या मकसद से किया गया उसमें सबसे ज़्यादा आदिवासियों की भूमियों पर अधिग्रहण किया गया है, जिसमें विभिन्न व्यवसायिक कंपनियों को सरकार खुद ज़मीन मुहैया कर रही है।
यानी यह मान लिया जाय कि अब देश की सरकार भी आदिवासियों को उनके क्षेत्र से उजाड़ देना चाहती है, ताकि उन ज़मीन के अंदर पाए जाने वाले कीमती प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा कर सके। क्या यह संभव नहीं था कि आदिवासियों को उनकी ज़मीन से निकलने वाले संसाधनों पर हिस्सेदार बनाकर उनके आर्थिक विकास का मार्ग प्रशश्त किया जाता। ये कहां का न्याय  है कि नई सभ्यता को बनाने के लिए किसी पुरानी सभ्यता को पूरी तरह नष्ट कर दिया जाय। यह तो क्रूरता की पराकाष्ठा होगी और गैर लोकतांत्रिक भी।
Exit mobile version