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“भला मेरे प्लास्टिक के इस्तेमाल बंद करने से क्या होगा?”

मेरी फेसबुक फीड महाराष्ट्र के प्लास्टिक बैन की खबरों से भरी पड़ी है और मैं ये सोच रहा हूं कि मैं अपनी सुविधाएं क्यों छोडूं। क्यों मैं सब्ज़ी लेने जाते वक्त झोला ले जाना याद रखूं, या अपना पानी बोतल में भरकर ले जाने की ज़हमत करूं। आखिर मुझे अपना गीला और सूखा कूड़ा अलग-अलग करके क्या मिलेगा। मेरा फैलाया कचरा मेरे साउथ दिल्ली के पौश इलाके के आस-पास नहीं ठहरेगा। वो कहां जाएगा इससे मैं अनजान बना रहना पसन्द करता हूं।

मैं भोपाल एक्सप्रेस से दिल्ली आ रहा हूं और खिड़की के बाहर देख रहा हूं। किसी गांव के पास का एक हाइवे गुज़र रहा है, जिसका किनारा काले रंग के एक ढेर से पटा हुआ है, जिसमें जगह-जगह चमकीली प्लास्टिक दिख रही है। अगर एसी कोच का शीशा ना होता तो शायद मुझे बदबू भी आती।

बहरहाल, उस ढेर में एक गाय घुटनों तक धंसी खड़ी है और अपना मुंह डाल-डाल कर कुछ ढूंढ रही है। एक छोटा अधनंगा बच्चा वहां पौटी भी कर रहा है।

मुझे थोड़ी छटपटाहट हो रही है। क्या ये मेरे घर का कचरा हो सकता है? नहीं! मैंने पढ़ा है कि एक टन प्लास्टिक से एक किलोमीटर की मज़बूत सड़क बन सकती है। मेरा कूड़ा शायद वहां जाता है। शायद।

पढ़े-लिखे होने के नाते मुझे लगता आ रहा है कि सुविधाएं इस्तेमाल करना मेरा अधिकार है। अधिकारों के बारे में बहुत पहले मैंने एक कहानी पढ़ी थी। सोहन नाम के एक व्यक्ति को अपनी छड़ी घुमाकर चलने का शौक था। वो रोज़ सुबह अपनी छड़ी घुमाता हुआ सैर करता था। एक दिन उसकी छड़ी सामने से आ रहे एक व्यक्ति की नाक पर लग गई। सोहन को जज के सामने लाया गया तो वो कहने लगा कि छड़ी घुमाना उसका अधिकार है। उस दिन से ये तय हुआ कि छड़ी घुमाने का अधिकार केवल तब तक है, जब तक किसी सामने वाले की नाक नहीं आ जाती।

नाक तो आ रही है। मैं कमज़ोर हूं। इसलिए मैं दूसरों की तकलीफ देखकर भी अनदेखा करता आ रहा हूं। मुझे कुछ- कुछ जवाब मिल रहा है। मुझे दूसरों के अधिकारों के प्रति अगर सजग होना है, तो ये छोटे-छोटे मगर कठिन प्रयास तो करने ही होंगे। मुझे प्रेरित करने के लिए अगर प्लास्टिक पर बैन भी लगाया जाए, तो वो भी बुरा नहीं है। मैं प्लास्टिक बैन का समर्थन करता हूं और इसे दिल्ली में भी लगाने का अनुरोध करता हूं।

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