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राजू हिरानी की सबसे खराब फिल्मों में गिनी जाएगी ‘संजू’

राजू भाई फिल्म बनाकर संजय दत्त के साथ दोस्ती निभानी थी तो दत्त साहब यानि सुनील दत्त जी पर भी बनाई जा सकती थी। ये पिता पुत्र की केमेस्ट्री तो उनके जरिए भी दिखा सकते थे। रणबीर और विक्की की एक्टिंग को छोड़कर फिल्म में कुछ भी बेहतर नहीं है। परेश रावल टाइप्ड कैरेक्टर ज़्यादा लग रहे हैं। परेश रावल, दत्त साहब के किरदार के साथ न्याय नहीं कर पाये। विक्की कौशल दिन ब दिन बेहतर होते जा रहे हैं । वे अपने काम मे विविधता के साथ न्याय करने में सफल हैं और इस फिल्म में भी बहुत बेहतर काम किया है । मेरे ख्याल रणबीर से भी बेहतर क्योंकि संजय जैसा बनने के चक्कर मे कहीं-कहीं रणबीर, कैरेक्टर को खराब कर गए हैं। जहां नैचुरल एक्टिंग है वहां बहुत गजब है।

इस फिल्म में महिला किरदारों के लिए कुछ खास नहीं है और सिवाय मनीषा कोइराला के किसी की भी एक्टिंग सराही नहीं जा सकती। मेरे ख्याल से यह फिल्म सोनम कपूर की सबसे खराब एक्टिंग वाली फिल्मों में गिनी जाएगी। अनुष्का शर्मा किसी भी संवाद से लेखिका नहीं लगती खैर ये गड़बड़ तो फिल्म लेखक की है लेकिन अनुष्का ने बहुत ही औसत काम किया है। दिया मिर्ज़ा का किरदार सिवाए शोपीस होने के अलावा कुछ नहीं है और माथे पर बार-बार त्यौरियों लाने के अलावा उन्हें ना कोई और काम दिया गया है और ना ही वे उस किरदार में कोई जान फूंक पाने में कामयाब हुई हैं ।

अगर फिल्म की कहानी की बात करें तो फिल्म संजय दत्त की ज़िंदगी को बड़ी ही चालाकी से सेलेक्टेड तरीके से दिखाती है। यथार्थ से कोसो दूर है। राजू हिरानी और जोशी ने फिल्म लिखने से पहले संजय दत्त से ठीक से कहानी सुनी नहीं लगता है। फिल्म संजय की जिंदगी के अलग अलग कॉन्ट्रोवर्शियल पहलुओं के दौरान उसके परिवार के साथ उसके सम्बन्धों को दिखाती है। बेशक पिता पुत्र के रिश्ते के विभिन्न आयाम खोलती है और माँ के साथ संवेदनशील रिश्ते को भी दिखाती है लेकिन संजय का बाकी परिवार नजरअंदाज़ कर दिया गया है। फिल्म से संजय की पूर्व पत्नियों का हिस्सा पूरा ही गायब है जबकि वो उसकी जिंदगी के सबसे महत्वपूर्ण मोड़ (1987 से 2005 तक) का हिस्सा थी।

राजू हिरानी ने दोस्ती के चक्कर मे मान्यता के किरदार को सुनील दत्त के बाद सबसे अधिक सपोर्टिव दिखाया है। जबकि प्रिया दत्त और नम्रता का हिस्सा लगभग पूरा ही गायब है। हालांकि कहीं-कहीं उनके किरदार आते ज़रूर हैं पर सिर्फ मौन। नरगिस का संजय की लाइफ में जितना अहम हिस्सा शुरुआत में दिखाया है वह फिल्म के दूसरे हिस्से में पूरी तरह से गायब है कहीं ज़िक्र भी नहीं।

मेरे ख्याल दत्त साहब की इमेज इस फिल्म में दिखाई गई इमेज से कहीं बेहतर है। उनकी कॉंट्रोवर्सी में भी एक ईमानदारी रही है वे खुद एक बड़े राजनेता थे और उस वक्त में थे जब संजय का जेल में आना जाना लगा रहता था। उनके राजनेता के किरदार को सिर्फ मुम्बई दंगों के वक्त जनता में उतरे सहयोगी तक समेट दिया गया है। कमलेश के किरदार के ज़रिये हिरानी अपने नोबल कॉज़ फ्रेंड की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। कमलेश का किरदार सपोर्टिंग है लेकिन बीच से एकदम गायब करना और फिर वापिस लाना थोड़ा सा अटपटा है। विक्की कौशल का काम इस फिल्म के सबसे बेहतरीन पहलू में से एक है।

अगर कहानी के मोटिव की बात करें तो फिल्म का शुरुआती हिस्सा ड्रग्स के खिलाफ व्यक्ति के उभरने की कहानी के रूप में पेश नज़र आता है। निजी ज़िंदगी से ज़्यादा संजय की ड्रग्स के साथ लड़ाई की कहानी ज़्यादा है। संजय के साथ दोस्ती निभाने के लिए यह हिस्सा काफी था। लेकिन दूसरा हिस्सा संजय दत्त की गुड इमेज बिल्डिंग और जस्टिफिकेशन से ज़्यादा कुछ नहीं है। जिस तरह जितनी नादानी के साथ अपनी गलतियों का स्पष्टीकरण दिया जा रहा है उस तरह तो लगभग हर अपराधी के पास अपनी एक कहानी है।

यरवदा जेल के रेडियो FM का कॉन्सेप्ट पता नहीं कितना सच है अगर सच है भी तो क्या वहां रेडियो जॉकी जोकि खुद कैदी है क्या अपनी कहानी सुनाता है? संजय से ज़्यादा ईमानदार उनके पिता, उनके दोस्त और उनकी पत्नी मान्यता को दिखाया गया है। ये फिल्म संजय दत्त की इमेज सुधारने के लिए मान्यता की पहल पर राजू हिरानी ने दोस्ती निभाने के लिए बनाई है ऐसा फिल्म देखते-देखते अहसास हो जाता है।

राजू हिरानी ने इस फिल्म में भी अपना ट्रेड मार्क दिया है। जिस तरह टेंशन के वक्त जादू की झप्पी, ऑल इज़ वेल, गांधीगिरी का कॉन्सपेट पूर्व फिल्मों में दिया गया था उसी तरह इस फिल्म में भी बॉलीवुड गानों के ज़रिये टेंशन से बचने का जादूई खिलौना बनाया गया है। निश्चित तौर पर टेंशन में म्यूज़िक एक अच्छा इलाज है लेकिन जिस तरह से ज़बरदस्ती गाने सुनने का तरीका इस्तेमाल किया गया है वह काफी स्टीरियोटाइप सा लगता है।

हर वक़्त साथ रहने वाले दोस्त सर्किट, रेंचो और भैरव के बाद कमलेश इस फेहरिश्त में अगला नाम है। राजू हिरानी इस फिल्म में अपने स्तर से काफी नीचे नज़र आते हैं। डायरेक्शन भी कोई बहुत बेहतर नहीं है, चींटी ओर चूहे से बात करना इस्टैब्लिश नहीं हो पा रहा। फिल्म बहुत भागती हुई सी लग रही है। निश्चित तौर पर 37 साल का सफर 3 घण्टे में समेटना बहुत मुश्किल है लेकिन यह बहाना नहीं हो सकता क्योंकि बॉयोपिक में उससे भी अधिक समय को कम समय की फिल्मों में बहुत बेहतर तरीके से उकेरा जा चुका है।

समीक्षा हमेशा बेहतर और खराब के स्थापित मानकों से कम्पेयर करके ही होती है। राजू हिरानी द्वारा खुद के लिए स्थापित किये गए मानकों के साथ कम्पेयर करने पर यह फिल्म बहुत हल्की है। फिल्म का म्यूज़िक याद रखने लायक नहीं है। ए आर रहमान का नाम बेशक म्यूज़िक डायरेक्टर्स में है लेकिन बैकग्राउंड स्कोर से लेकर फिल्म का कोई भी गाना बेहतर गानों में शामिल हो सकने में कामयाब नही हो सकता। हां, कर मैदान फतेह गाना ज़रूर कुछ दिन मोटिवेशनल सॉंग के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।

अंत मे यह रणबीर और विक्की की फिल्म है यही मानकर देखने के जाएं, संजय दत्त की फिल्म की नज़र से देखेंगे तो मेरी तरह निगेटिव ही लिखेंगे। रणबीर और विक्की को उनके काम के लिए सलाम…

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