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CBSE रिज़ल्ट में स्टूडेंट्स का 499/500 अंक लाना चिंता का विषय है

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने कक्षा 10वीं और 12वीं परीक्षा के नतीजे घोषित कर दिए हैं। देशभर से अन्य राज्यों के बोर्ड परीक्षा नतीजे भी आने शुरू हो गए हैं। बोर्ड परीक्षा नतीजों के साथ ही सबका ध्यान इस बात पर केंद्रित हो गया कि परीक्षा में अव्वल कौन रहा। परीक्षा में जिन बच्चों ने अधिक अंक प्राप्त किए हैं, सभी लोग उनकी कामयाबी पर खुश हो रहे हैं और उनको बधाई दे रहे हैं।

दरअसल, अनेक परिवारों में परीक्षा परिणाम आने के बाद खुशी की लहर दौड़ जाती है। अंक जितने अधिक हो, प्रसन्नता उतनी अधिक बढ़ जाती है। इस बार सीबीएसई बोर्ड में कक्षा 10वीं और 12वीं में प्रथम स्थान पाने वाले पांच बच्चों के अंक 500 में से 499 रहे यानि इन बच्चों ने 100 प्रतिशत में से 99.80 प्रतिशत अंक प्राप्त किए।

परीक्षा नतीजों की घोषणा के बाद देशभर से बच्चों के आत्महत्या करने की दुखद खबरें आईं। अकेले मध्य-प्रदेश में 12वीं परीक्षा के नतीजों के बाद सात बच्चों ने आत्महत्या कर ली। खबरों के अनुसार आत्महत्या करने वाले बच्चे परीक्षा परिणाम से खुश नहीं थे।

दो बच्चों ने 59 और 70 फीसद अंकों के साथ परीक्षा उत्तीर्ण करने बावजूद आत्महत्या कर ली क्योंकि वो अपने मनपसंद कॉलेज में दाखिला नहीं ले पाते। सवाल उठता है कि इन बच्चों की मौत का ज़िम्मेदार कौन होगा?

इस वर्ष सीबीएसई की 12वीं कक्षा में नोएडा के ‘स्टेप बाई स्टेप’ स्कूल की मेघना श्रीवास्तव ने 500 में से 499 अंक प्राप्त कर देश भर में प्रथम स्थान हासिल किया है। मेघना ने अंग्रेजी विषय को छोड़कर अन्य सभी विषयों में सौ प्रतिशत अंक हासिल किए हैं। अंग्रेजी विषय में वह केवल एक अंक कम आने की वजह से 100 प्रतिशत अंक नहीं ला पाईं। इस वर्ष सीबीएसई की 12वीं कक्षा में 72 हज़ार से ज़्यादा बच्चों ने 90 फीसद से ज़्यादा अंक प्राप्त किए हैं और 12,737 छात्रों ने 95 फीसद या उससे ज़्यादा अंक हासिल किए हैं।

दरअसल, किसी बच्चे का परीक्षा में 500 में से 499 अंक आना चिंतनीय विषय है। खासतौर से भाषा, इतिहास, राजनीतिक विज्ञान और मनोविज्ञान जैसे विषयों में 100 प्रतिशत अंक आना मौजूदा शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है।

गौर करने वाली बात है कि कुछ सालों पहले तक गणित, अर्थशास्त्र और विज्ञान जैसे विषयों में ही छात्रों के 100 प्रतिशत अंक आते थे किन्तु अब भाषा, इतिहास, राजनीतिक विज्ञान और मनोविज्ञान जैसे विषयों में भी छात्रों के 100 प्रतिशत अंक आने लगे हैं जोकि चिंता का विषय है।

माना जा सकता है कि गणित, अर्थशास्त्र और विज्ञान जैसे विषयों में तय सूत्र और सिद्धांत होते हैं जिसको याद कर या क्रमानुसार सही लिख कर छात्र पूरे अंक हासिल कर सकता है किन्तु भाषा, इतिहास और राजनीतिक विज्ञान जैसे विषयों में कोई तय सूत्र और सिद्धांत नहीं होता है बल्कि इन विषयों में बहुत सारे प्रश्न भाषा लेखन, भाषा की विधाओं, इतिहास की घटनाओं की समझ और दिए गए विषय पर सोच विचार कर विश्लेषण करना आदि से संबंधित होते हैं।

एक ही प्रश्न के अलग-अलग छात्रों के अनुसार अलग-अलग उत्तर हो सकते हैं। इसलिए इन विषयों में छात्र के 100 प्रतिशत अंक आना मूल्यांकन प्रणाली पर सवाल खड़े करता है।

प्रश्न उठता है कि आज से लगभग 10 वर्ष पहले छात्रों के इतने ज़्यादा अंक क्यों नहीं आते थे? क्या उस समय पढ़ने वाले छात्र काबिल नहीं थे? क्या उस समय अंक देने का तरीका अब से अलग था? और क्या उस समय परीक्षा की कॉपी को जांचने के लिए अलग नियम निर्देश थे?

दरअसल, पिछले कुछ सालों से सीबीएसई बोर्ड के छात्रों के लिए ज़्यादा अंक अर्जित करना काफी आसान हो गया है जिसकी मुख्य वजह मार्क्स मॉडरेशन पॉलिसी तथा प्रत्येक विषय में प्रैक्टिकल मार्क्स देना और साल दर साल प्रश्नपत्र का आसान होते रहना है। जैसे अब भाषा, इतिहास और अर्थशास्त्र जैसे विषयों में भी प्रैक्टिकल के लिए 20 अंक दिए जाने लगे हैं।

दूसरा, हर विषय के पाठ्यक्रम के कठिन हिस्सों को हटाकर पाठ्यक्रम सीमित कर प्रश्नपत्रों का कठिनाई का स्तर भी लगातार कम किया गया है।

गौरतलब है कि सीबीएसई बोर्ड तीन सेट के प्रश्नपत्रों के ज़रिए परीक्षा लेता है। अगर किसी विषय के तीन सेट के लिए कठिनाई का स्तर अलग-अलग हो तो बोर्ड इसमें एकरूपता लाने के लिए इसे मॉडरेट करता है। इसी प्रक्रिया को मार्क्स मॉडरेशन पॉलिसी के नाम से जानता जाता है।

इस पॉलिसी के तहत जब 12वीं में कठिन पेपर आते हैं तो छात्र आपत्ति दर्ज करा सकते हैं, और उन्हें ऐसे सवालों के पूरे अंक दिए जाते हैं। अंक उन छात्रों को दिए जाते हैं जिन्होंने कॉपी में सवाल को थोड़ा भी हल करने की कोशिश की हो या फिर प्रश्न ही गलत हो।

इस पॉलिसी के तहत हर साल सीबीएसई के पास प्रश्नपत्रों में अत्याधिक कठिन सवालों की ढेरों शिकायतें मिल रही थी जिसके निपटान हेतु सीबीएसई हर साल एक विशेषज्ञ कमिटी गठित कर शिकायतों के आधार पर मामले की जांच कर इस तरह के सवालों के लिए हर छात्र को ग्रेस मार्क्स देने का फैसला करता है।

इसलिए कुछ शिक्षकों का मानना है कि इस पॉलिसी के कारण छात्रों को 5 से 10 अंक अधिक मिलते हैं जिसके कारण साल 2008 के बाद से लगातार ऐसे छात्रों की संख्या में इज़ाफा होता ही जा रहा है जिनके 95 फीसद से ज़्यादा अंक आ रहे हैं।

पिछले साल केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावेडकर ने मार्क्स मॉडरेशन पॉलिसी पर सवाल खड़े किए थे तथा उनके मंत्रालय का मानना था कि मॉडरेशन के ज़रिए अंक बढ़ाने की इस प्रक्रिया को खत्म किया जाना चाहिए और इसके लिए सीबीएसई समेत अन्य राज्य बोर्डों ने भी अपनी मंज़ूरी दे दी थी। इसलिए सीबीएसई ने 25 अप्रैल को मार्क्स मॉडरेशन पॉलिसी को समाप्त करने की घोषणा कर दी थी। लेकिन सीबीएसई द्वारा पॉलिसी को खत्म करने की घोषणा के बाद अभिभावक दिल्ली हाईकोर्ट पहुंच गए। जिस पर दिल्ली हाईकोर्ट ने अपना फैसला देते हुए कहा कि मार्क्स मॉडरेशन पॉलिसी को ऐसे खत्म कर देना उन छात्रों के लिए ठीक नहीं होगा जिन्होंने उस समय परीक्षा फॉर्म भरे, जब ये पॉलिसी लागू थी। इसलिए कोर्ट ने सीबीएसई बोर्ड को मार्क्स मॉडरेशन पॉलिसी के पालन करने के निर्देश दिए।

सवाल है कि क्या परीक्षाओं में ज़्यादा से ज़्यादा अंक लाना ही बेहतर नतीजों का पैमाना होना चाहिए? विडंबना है कि इस सवाल के बरक्स विकसित हुई व्यवस्था में लोगों के बीच यह धारणा बनी है कि अगर उनके बच्चों को अच्छे अंक नहीं मिले, तो उन्हें बेहतर भविष्य की दौड़ से बाहर मान लिया जाएगा।

दरअसल, परीक्षा में अंकों की अहमियत इसलिए भी है कि ज़्यादा अंक लाने वाले छात्रों को बेहतर कॉलेज में दाखिला मिलता है और कम अंक वाले बच्चों को किसी कमतर कहे जाने वाले कॉलेजों में किसी तरह दाखिला मिल पाता है। या फिर ऐसे बच्चे एक साल किसी कोचिंग सेंटर में तैयारी कर दोबारा परीक्षा देने की तैयारी में जुट जाते हैं।

गौरतलब है कि परीक्षा में 90 फीसद से अधिक अंक ना ला पाने पर बच्चों को कमतर मान लिया जाता है, ऐसा क्यों? 60 फीसद से ज़्यादा अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण करने के बावजूद छात्र आत्महत्या कर लेते हैं? यह कैसी मानसिकता विकसित हो गई है कि ज़्यादा अंकों को अभिभावकों ने अपनी प्रतिष्ठा का पर्याय बना लिया है और उसे बच्चों के जीवन के मुकाबले ज़्यादा अहम मान लिया है। अगर कोई बच्चा 90 प्रतिशत अंक लाकर भी अपने मनपसंद कॉलेज में दाखिला नहीं ले पाता है तब ऐसी स्थिति में बच्चा क्या करे?

इसलिए ज़रूरत है वर्तमान मूल्यांकन प्रणाली में बदलाव करते हुए सभी बच्चों को समान अवसर प्रदान करने की। सभी स्कूलों में मूलभूत सुविधाएं और अकादमिक प्रावधान उपलब्ध कर समानता से बच्चों की परीक्षा ली जाए ताकि सभी बच्चों को समान अवसर मिल सके।

दरअसल, विद्यालय में दाखिले के साथ ही बच्चा एक प्रकार की अंधी दौड़ में शामिल हो जाता है। इस अंधी दौड़ का एकमात्र लक्ष्य होता है परीक्षाओं में पास होना। परीक्षाओं को पास करने की इस दौड़ में पता ही नहीं चलता है कि जीवन को समझने, दुनिया को जानने और सीखने की ललक कब पीछे छूट जाती है और एक डर अंदर बस जाता है। वह डर है इस प्रतियोगी दुनिया में नाकाम होने का। किसी भी परीक्षा में अच्छे अंकों से पास होना सबकी ख्वाहिश होती है और यह स्वाभाविक है। अगर ज़्यादा नंबर लाने की जद्दोजहद एक खास तरह के तनाव में तब्दील हो जाए तो यह सोचनीय है। क्योंकि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई उनकी ज़िंदगी संवारने के लिए होनी चाहिए ना कि उन्हें एक अंतहीन होड़ में झोंक देने के लिए।

दुनिया भर में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां पढ़ाई में सामान्य उपलब्धि वाले बच्चों ने ज़्यादा नंबर पाने वाले बच्चों के मुकाबले अलग-अलग क्षेत्रों में ऊंचे मुकाम हासिल किए और बेहतर इंसान के रूप में मशहूर हुए हैं।

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