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आखिरी भारत में जनता कब जीतेगी?

भारत की राजनीति पूरी दुनिया से बिल्कुल अलग ही होती आयी है और आज भी हो रही है, आज़ादी के बाद से पिछले लगभग 70 सालों से एक राजनीतिक दल हारता तो दूसरा जीत जाता है। अगली बार जीता हुआ हार जाता है और हारा हुआ जीत जाता है। वैसे ऐसा ही पूरी दुनिया में होता है, लेकिन भारत में सभी राजनीतिक दलों का हाल एक जैसा ही होता है। जबकि विदेशों में नहीं।

दलों की जीत-हार का यह क्रम कोई नया नहीं है, कई दशकों का है, लेकिन जो मूल सिद्धांत है भारत का, भारत के संविधान का, भारत के कानून का वह भारत के चुनावों के समय कहीं खो सा जाता है। लेकिन विदेशों में ऐसा नहीं होता, यही कारण है कि दुनिया में भारत की राजनीति को बिल्कुल अलग कहा गया है।

उप-चुनाव में एक फिर भाजपा की करारी हार

चलिए अब बात करते हैं उस मुद्दे की जो वर्तमान की खास ज़रूरत है। मुद्दा है देश की 4 लोकसभा और 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव और उनके नतीजे। बीते गुरुवार सभी 14 सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजें आ गए और क्रमश: भारतीय जनता पार्टी को अपनी अहम सीटों के साथ अन्य सीटों पर भी हार का मुंह देखना पड़ा।

इस उपचुनाव में यूं तो सभी पार्टियों के लिए प्रत्येक सीट पर जीतना अपने हिसाब से अहम ही था, हर सीट पर, हर चुनाव, हरेक दल अपनी जीत ही चाहता है, ऐसा कोई भी नहीं चाहता होगा कि सत्ता का सुख उसे भोगने का न मिले।

लेकिन इस उपचुनाव में उत्तर प्रदेश की दो सीटें सबसे ज़्यादा अहम थी और हैं। राजनीतिक दृष्टिकोण से, एक बिजनौर की नूरपुर और दूसरी शामली की कैराना। दोनों ही सीटें भाजपा के विधायक और सांसद के आकस्मिक निधन के बाद खाली हुर्इं थी। दोनों ही सीटों में कैराना की सीट भाजपा का गढ़ मानी जानी वाली सीट थी, क्योंकि इस सीट पर दिवंगत भाजपा सांसद हुकुम सिंह का कब्ज़ा लम्बे समय से रहा था।

कहीं से आवाज़ नहीं आयी नेता चुनेंगे हम

लेकिन यहां सवाल चुनाव और चुनावों के नतीजों का नहीं है, यहां एक दूसरा ही सवाल है जिसका होना बहुत ज़रूरी है। बहुत अफसोस कि यह सवाल किसी भी दल ने कभी न उठाया है, न उठाया जा सकेगा। सवाल यह है कि क्या इस उपचुनाव में भी भारत या क्षेत्रीय जनता की जीत हुई है, क्या जनता ने उसी नेता को वोट दिया? जिसको वह अपने नेता के रूप में देखना चाहती थी?

सत्तारूढ़ भाजपा और अन्य विपक्षी पार्टियों ने अपने उम्मीदवारों को मैदान में उतारने से पहले स्थानीय जनता की खुले मंच से राय मांगी थी? इन सभी सवालों का जवाब ना है। सभी दलों ने वही किया जो वो दशकों से करते आ रहे हैं, और जनता ने भी वहीकिया जो दशकों से करते आ रहे हैं। किसी भी क्षेत्र से यह आवाज़ सुनाई नहीं दी कि आम जनता ने राजनीतिक दलों से कहा हो कि हमारा स्थानीय विधायक या सांसद हम
तय करेंगे, उसी को आप अपना टिकट दें।

भाजपा का समीकरण फेल, विपक्ष का पास

असल में इस उपचुनाव को समूचा विपक्ष जनता की जीत, देश की जीत कह रहा है, लेकिन यही तो सत्ताधारी भाजपा और अन्य दल भी जीत के बाद कहते हैं। कितना आसान है, अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षों को पूरा करने के लिए चुनाव से महीनों सालों पहले ही हर गली-मौहल्ले का राजनीतिक दलों द्वारा आॅपरेशन किया जाने लगता है, कहां, कितने प्रतिशत कौन सी जाति और धर्म के लोग निवास करते हैं। और फिर शुरू होता है, राजनीति का वही घिनौना खेल जो हमेशा से चला आ रहा है।

लगभग सभी दल जाति, धर्म और वर्ग, समुदायों के आधार पर अपना प्रत्याशी तय करते हैं, और फिर दावा करते हैं कि जनता की जीत हुई, जबकि ऐसे सिर्फ एक दल का जातीय या धार्मिक वोटों का समीकरण पास हो जाता है, और दूसरे का फेल। बस यही है, लेकिन भारत की जनता कब जीगेगी?

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