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“ज़रूरत है बेहतर विकल्प की, ना BJP ना ही कॉंग्रेस के हाथ महफूज़ है मुल्क”

बीजेपी को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। किन्तु इतना तो सोचना ही पड़ेगा कि बीजेपी की जगह कॉंग्रेस को सत्ता में लाने से क्या कुछ बदलेगा। बीजेपी से पूर्व कॉंग्रेस ही तो थी सत्ता में, उन दिनों को भी याद करना होगा।

मसला चाहे साम्प्रदायिक हिंसा का हो या फिर कॉरपोरेट लूट और किसान-मज़दूरों के अधिकारों में कटौती का। या फिर भ्रष्टाचार और सवर्ण-सामन्ती दबदबे का ही मामला क्यों ना हो। आरक्षण से लेकर भूमि सुधार के प्रश्न पर दोनों एक जैसे हैं।

दलितों पर सवर्ण-सामन्ती हमलों के प्रश्न पर दोनों की पक्षधरता सवर्ण-सामन्ती ताकतों की तरफ ही रही है। दोनों ही दल अपने मूल प्रकृति में ब्राह्मणवादी-पूंजीवादी और आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक, अति पिछड़ा-पसमांदा और पिछड़ा विरोधी रही हैं।

गरीबी-बेकारी और मंहगाई के प्रश्न पर भी दोनों एक सरीखे रहे हैं। दोनों के राज में कॉरपोरेटों-पूंजीपतियों को लाखों करोड़ की कर्ज़माफी दी जाती रही है। पूंजीपति मालामाल और देश बदहाल-यही दोनों की नीतियों का अहम हिस्सा रहा है।

खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश का प्रश्न हो अथवा जीएसटी का, बस लोकेशन के फर्क के कारण दोनों विरोध-समर्थन करते रहे हैं। कॉंग्रेस ने सत्ता में रहते हुए इसका समर्थन और बीजेपी ने विपक्ष में रहते हुए इसका विरोध किया था। जब भाजपा सत्ता में आई तो इसको लागू करने लगी।

इन सारे मामले में भाजपा-कॉंग्रेस में कोई बुनियादी फर्क हो तो भले सोचा जाए। बीजेपी राज में भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं तो इसके पूर्व कॉंग्रेस के राज में ही इसकी शुरुआत हुई थी। कॉंग्रेस द्वारा जिस कॉर्पोरेटपरस्त आर्थिक नीतियों की शुरुआत हुई थी, उसी की यह परिणति है।

शिक्षा, स्वास्थ्य के मोर्चे पर भी दोनों की नीतियां निजीकरण की दिशा में ही है। इसी आर्थिक नीति को बीजेपी ने भी जारी रखा। बाकी भाजपा का हिंदुत्व का एजेंडा और कॉंग्रेस का सेकुलरिज़्म का एजेंडा तो सियासी खेल मात्र है और इन दोनों के इर्द-गिर्द जो एकता बनती हुई दिख रही है, उसके पीछे देश और जनता की चिंता नहीं बल्कि सत्ता-कुर्सी का लालच ही है। इनसे जनपक्षधर बदलाव-विकास कोई उम्मीद सरासर बेमानी है।

इस सियासी खेल को समझिए और मुल्क को इन दोनों के चंगुल से मुक्त कराने के बारे में सोचिये। इन दोनों में से किसी के भी हाथ में मुल्क महफूज़ नहीं है। नीति के स्तर पर नए सुसंगत विकल्प के बारे में सोचने का सही वक्त आ गया है।

(लेखक न्याय मंच, बिहार के सक्रिय कार्यकर्ता हैं।)

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