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सेना को कश्मीरियों के रेप की सलाह देने वालों की मानसिकता जाननी ज़रूरी है

Kashmir

इधर कुछ दिनों से एक तस्वीर और उसके साथ एक संदेश भारत के कई महान देशप्रेमियों द्वारा शेयर किया जा रहा है। साथ ही इसको ना सिर्फ बड़ी संख्या में पसंद किया जा रहा है बल्कि इसका समर्थन भी किया जा रहा है। अगर आप नहीं समझ पा रहे कि मैं किस पोस्ट की बात कर रहा हूं तो मैं आपको बता दूं कि मैं बात कर रहा हूं उस पोस्ट की जिसमें “सेना को कश्मीरी लड़कियों के साथ बलात्कार करने की सलाह दी जा रही है।”

साथ की फोटो में एक लड़की है, जिसमें वह सड़क से पत्थर उठाती दिख रही है। सम्भवतः आपमें से भी कुछ लोगों ने इसका समर्थन किया हो जाने या अनजाने में।

क्या आप वाकई में समझना चाहते हैं कि ये हो क्या रहा है, तो कृपया थोड़ी देर के लिए अपने विचारों को शांत रखकर इसे पढ़ें-

मैं पहले यह बता दूं कि उस पोस्ट के अपने राजनीतिक मायने हो सकते हैं लेकिन हम यहां इसके सामाजिक व मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर चर्चा करेंगे। हां तो मामला यह है कि उस पोस्ट में देशप्रेम की सर्वोच्च अभिव्यक्ति को दर्शाते हुए सेना को एक नेक सलाह दी गई है। लेकिन, सेना तो ऐसा कुछ नहीं करने वाली जिसे शायद आप भी अच्छे से जानते हैं अर्थात ये नामर्द सलाह आप तक ही रहने वाली है। लेकिन मामला यहां खत्म नहीं होता बल्कि शुरू होता है। आप अपनी सलाह को ऐसे ही ज़ाया नहीं जाने देंगे, आप इसे खुद के द्वारा अंजाम दोगे, आप इसे धार्मिक हथियार बनाओगे, आप इसे जातीय हथियार बनाओगे, आप इसे नृजातीय हथियार बनाओगे या कोई और सामूहिक हथियार (नोट- “बनाओगे” को सिर्फ भविष्यवाची मनाने की भूल मत करना)।

और अंततः आपको शायद ये भी नहीं पता कि ये जो आपका ऐसे विचारों का समर्थन है कल को आपके पड़ोसी से अनबन होने की स्थिति में भी प्रभावी हो जाय और एक दिन खुद अपने घर में भी। आप सोच रहे होंगे कि ये क्या बकवास है तो आपको बता दूं कि आप सोच भी नहीं सकते कि इसके पीछे कितना गहरा मनोविज्ञान काम कर रहा होता है। चलिये उदाहरण से समझता हूं।

जब एक आदमी ऐसे किसी विचार का किसी भी प्रकार से समर्थन कर रहा होता है तो यह उसके अपने अचेतन में दमित उन इच्छाओं के पूर्ति की लालसा होती है, जिसके लिए यहां वह सामाजिक रूप से वांछनीय तरीका खोज लेता है।
यहां तक कि कभी-कभी वह इसे धार्मिक व सांस्कृतिक रंग भी देता है (अरब देशों में खेला जाने वाला “तहर्रुश”)।

हम हर रोज़ महिलाओं पर बनी हुई गालियां सुनते आ रहे हैं। क्या आपने कभी सोचा कि पुरुषों में लड़ाई होने पर महिलाओं को गालियां क्यों दी जाती हैं ? और ये गालियां महिलाओं के अंग विशेष को लेकर क्यों बनाई गई हैं ?

इन गालियों को अगर आप नहीं भी देते होंगे तो आपके घर का कोई रेस्पेक्टेड मेंबर या आपके रेस्पेक्टेड पर्सन्स ज़रूर प्रयोग करते नज़र आते हैं और इसका हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि इसे हमने कहीं गहरे में एक्सेप्ट कर रखा है।

आप किसी बड़े दंगे से संबंधित आंकड़े उठाकर देखिये कि इन दंगों में हत्या और बलात्कार का अनुपात क्या है।
आखिर दंगे कौन करता है ? सामान्य आदमी ना, आखिर वह दंगे कहां करता है ? अपने ही क्षेत्र में ना तो फिर ज़रा सोचिए कि जो महिलाएं उनके क्षेत्र की होती हैं, शायद उनसे वह व्यक्ति परिचित भी होता हो, शायद वह बहन, बेटियों, माताजी का संबोधन भी देता रहा हो, अचानक से सब खत्म कर उसके अंदर का राक्षस बाहर आ जाता है।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हर व्यक्ति 3 से 4 प्रतिशत तक एबनॉर्मल होता है, लेकिन अब यह प्रतिशत बढ़ रहा है और इसका जो एक सबसे प्रत्यक्ष साइड इफेक्ट है वह यह कि जिन कुछ व्यक्तियों में यह अभी नहीं बढ़ा है उनको ये लोग असंस्कारी, घमंडी, व समाज विरोधी कहते हैं और आपस में एक दूसरे के प्रति सम्मान ज्ञापन करते नज़र आते हैं।

ऐसे बढ़े हुए एबनॉर्मल व्यक्तित्व के लोग अक्सर आपको धार्मिक चर्चाएं करते मिल जाएंगे। ये नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें करेंगे। ये आपको सूक्तियों का हवाला देते नज़र आएंगे या संस्कृति की दुहाई।

अंदर से जितनी गंदगी भरी होती है बाहर से हम उतनी ही सुंदर लेप चढ़ाते हैं। हम दूसरों के सामने खूब अच्छा दिखने का प्रयास करते हैं, ठीक उसी समय दूसरा भी हमारे सामने अच्छा दिखने का प्रयास कर रहा होता है। यानी कि हम सब एक दूसरे के सामने अच्छा दिखने का ढोंग कर रहे होते हैं और फिर इस तरह एक बनावटी एक आर्टिफिशियल समाज का निर्माण हो जाता है।

चूंकि ये सब आर्टिफिशियल होता है इसलिए ये ज़्यादा देर तक टिकता नहीं और हमारा असली व्यक्तित्व समय-समय पर बाहर आ जाता है। अब चूंकि यही घटना सबके साथ होती है, अतः यहां एक दूसरे की असलियत को नज़रअंदाज करने का एक “सामूहिक कॉन्ट्रैक्ट” पाया जाता है और मज़े की बात ये है कि यह सब अंकॉनसियसली होता है।

तो इस तरह हमारे अंदर का झूठा व बनावटीपन हमें सामाजिक रूप से सामान्य बातचीत में भी एक-दूसरे के लिए श्रीमान, आदरणीय, माननीय, श्रद्धेय, पूजनीय, देवतुल्य जैसे मूल्यवान शब्दों का प्रयोग करने पर विवश करता है।

लोगों में एक सामाजिक भ्रांति आमतौर पर पाई जाती है कि धार्मिक लोग नैतिक ईमानदार व अच्छे होते हैं। अतः आपने अक्सर देखा होगा कि आपके आस-पास के जो लोग जितनी मात्रा में झूठा व बनावटी जीवन जीते हैं वो उतने ही तथाकथित धार्मिक भी होते हैं। इनका धार्मिक स्थलों से बहुत लगाव होता है। ये अक्सर धार्मिक यात्राओं पर निकलते रहते हैं। ये धार्मिक अनुष्ठान में बड़ा ही बढ़-चढ़कर भाग लेते नज़र आते हैं। क्योंकि ये इन कार्यकलापों के माध्यम से खुद को नैतिक और ईमानदार व अच्छा साबित करने में कामयाब भी हो जाते हैं।

जबकि सच्चाई ये है कि लगभग 90% लोगों के लिए ईश्वर की अवधारणा उनकी अपनी सहूलियत के हिसाब से होती है, जिसमें जब वे कोई गलत काम कर रहे होते हैं तो उस समय उनका ईश्वर/अल्लाह/गॉड उन्हें नहीं देख रहा होता है लेकिन वही लोग जब धार्मिक पोज़ में होते हैं तो खुद को ईश्वर से कनेक्ट समझते हैं। हालांकि कई लोग यहां भी अपनी सहूलियत रखते हैं और इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमारे धार्मिक स्थलों पर पायी जाने वाली मानसिक गंदगी का प्रदर्शन है।

तो अब फिर से आते हैं अपने मूल मुद्दे पर की ऐसे घृणित मानसिकता वाले लोगों का इलाज क्या है। मुझे लगता है कि इसकी ज़िम्मेदारी महिलाओं/ लड़कियों पर अधिक है, सैद्धान्तिक रूप से भी और व्यवहारिक रूप से भी। इसलिए उन्हें ही तय करना है कि उन्हें खुद के लिए कैसे समाज का निर्माण होने देना है, क्योंकि टेक्निकली समाज के निर्माण का रास्ता उनके ही कोख से होकर जाता है।

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