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UGC को खत्म करना क्या सरकार द्वारा उच्च शिक्षा पर नवउदारवादी हमला है?

1990 में जोमटीयन कॉन्फ्रेंस और उसके साल भर बाद भारत सरकार द्वारा नवउदारवाद के लिये दरवाज़ा खोलकर शिक्षा के बाज़ारीकरण का जो खेल प्राथमिक शिक्षा पर हमले के साथ शुरू हुआ था अब वो उच्च शिक्षा तक आ गया है। मगर ये मानना भूल होगी कि सरकार ने जो तरीके प्राथमिक शिक्षा को ध्वस्त करने के लिए अपनाएं थे वही तरीके उच्च शिक्षा को तबाह करने के लिये अपनाएगी।

प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकार ने DPEP कार्यक्रम चालू किया जिसके तहत नगण्य हिस्सेदारी की कीमत पर प्राथमिक शिक्षा को वर्ल्ड बैंक को सौंप दिया। जिसके बाद पहले से मौजूद बहुस्तरीय शिक्षा व्यवस्था को प्रोत्साहित किया गया और समान स्कूल प्रणाली की बात हाशिये पर ढकेल दी गयी। निजी स्कूलों के स्वागत में गलीचे बिछाए गए और वंचित वर्गों के लिए शिक्षा की परिभाषा को साक्षरता तक सीमित कर दिया गया।

शिक्षा कोई पब्लिक गुड नहीं रह गई और ना ही सरकार की ज़िम्मेदारी रही कि सबको निःशुल्क समान गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध कराई जाये। शिक्षा अब एक बाज़ार की वस्तु बन गई जिसे खरीदा और बेचा जा सकता था। प्राइवेट स्कूल समाज मे उच्च गुणवत्ता के मानक से रूप में स्वीकृत कर लिए गए। सरकार ने सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता लगातार गिराई, फण्ड कम किये, कम योग्यता वाले शिक्षा मित्र, पारा शिक्षक या ऐसे ही अन्य नामों से अस्थायी तौर पर शिक्षकों की भर्ती की। जिससे लोगों का सरकारी शिक्षा से मोहभंग हो और वो प्राइवेट स्कूलों की ओर रुख करें।

उच्च वर्ग जो मुख्यत: सवर्ण जातियों का समुच्चय है, उन्होंने अपनी सामाजिक आर्थिक पूंजी का लाभ उठाते हुए अपने बच्चों के लिये प्राइवेट स्कूलों की अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा खरीदी, और वंचित वर्ग,जातियों के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को असम्भव बना दिया गया। वो या तो व्यवस्था से सीधे बाहर कर दिए गएं या उन्हें सरकारी विद्यालय में शिक्षा मित्रों द्वारा कम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा लेने को बाध्य कर दिया गया जहां बहुधा शिक्षा का मतलब साक्षरता तक रह गया।

अगर हम माने कि सरकार उच्च शिक्षा पर भी ऐसा ही हमला करेगी तो हम गलत भी सबित हो सकते है। उच्च शिक्षा में सरकारी विश्विद्यालय जमे जमाये संस्थान है सरकार उन्हें सीधे बर्बाद नहीं कर सकती और ना ही उन्हें सीधे निजी हाथों में बेचने का खतरा मोल लेगी। इसके लिये सरकार ने दूसरा रास्ता अपनाया है और ऑटोनॉमी, क्वालिटी, एक्सीलेंस, इनोवेशन, रिफॉर्म जैसे लुभावनी शब्दावली का इस्तेमाल करके लगातार बाज़ार के एजेंडे को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही है। उच्च शिक्षा को स्वायत्त और अन्य सुधारो के नाम पर अनुदान से वँचित किया जा रहा है और संस्थानों को कॉरपोरेट से वित्त लेने के प्रवधान किये जा रहे हैं जिससे पिछले दरवाजे से कॉरपोरेट इन संस्थानों और उच्च शिक्षा पर अपना नियंत्रण स्थापित कर ले। जैसा कि बिरला अंबानी रिपोर्ट में कहा गया है कि उच्च शिक्षा पर बाज़ार का नियंत्रण होना चाहिये।

शिक्षा को लेकर सरकार के एजेंडे का मार्गदर्शन सन 2000 में आई बिड़ला अम्बानी रिपोर्ट से हो रहा है। उच्च शिक्षा को कॉरपोरेट के हाथों सौंपने के लगातार प्रयास में सरकार ने पहले HEERA बनाना चाहा वो प्रयास तो फिलहाल ठंडे बस्ते में है मगर सरकार ने HEFA जरूर बना डाला है। HEFA (Higher Education Financing Agency) में F का मतलब finance है, HEFA कोई सरकारी संस्थान नहीं है ये RBI के पास कम्पनी एक्ट के अंडर पंजीकृत एक गैर बैंकिंग फाइनांस कम्पनी है जिसका काम उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए बाज़ार से फण्ड जमा करना और उसे इन संस्थानों को कर्ज़ के रूप में देना है।

ध्यान रहे ये कोई अनुदान नहीं है कर्ज़ है जिसे इन संस्थानों को तय समय पर वापस करना है। इस तरीके से सीधे निजीकरण ना करके सरकार ने कंपनियों को पिछले दरवाज़े से शिक्षा को नियंत्रित करने का आमंत्रण दिया है। HEFA ने अब तक कुछ IITs और कुछ NITs को 2000 करोड़ तक का कर्ज दे रखा है। जिसे चुकाने के लिए इन संस्थाओ को समय समय पर अपनी फीस बढ़ानी पड़ेगी और शिक्षा का स्वरूप बाज़ार के हिसाब से तय होगा।

UGC को समाप्त कर सरकार इसी प्रयास को और धार दे रही है की सीधे निजीकरण ना किया जाय, बल्कि संस्थाओं को वित्त के लिए कॉरपोरेट के हाथों छोड़ दिया जाये। जिससे धीरे-धीरे देश में सस्ते खर्च पर अच्छी गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा उपलब्ध कराने वाली तमाम संस्थाएं अम्बानी-अडानी की कम्पनियां बन के रह जाएं, जहां बाज़ार तय करे कि कौन लोग पढ़ेंगे और क्या पढ़ेंगे। उच्च शिक्षा को वंचित वर्गों के लिए पूरी तरह असम्भव बना दिया जाये। सरकार उच्च शिक्षा पर लगातार हमले कर रही है।

कुछ दिनों पहले ऑटोनॉमी के नाम पर और अब HECI के नाम पर UGC के खात्मे के साथ सरकार, बाज़ार की शक्तियों के इसी एजेंडे को पूरी शक्ति से लागू करने की कोशिश कर रही है। इससे अधिकतम नुकसान समाज के वंचित तबकों, दलितों, मुस्लिमों, आदिवासियों, स्त्रियों को उठाना पड़ेगा। जो समूह संसाधन विहीन है और जिनकी राजनीतिक सत्ता और फैसलों में नगण्य भागीदारी है, उनके लिए उच्च शिक्षा के दरवाज़े हमेशा के लिये बन्द किये जा रहे हैं।

भारत कोई इकलौता उदाहरण नहीं है जहां सरकार बाज़ार की शक्तियों के हित में अपने ही नागरिकों की शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद कर रही हैं। नवउदारवादी नीतियां अपनाने वाले राज्यों में ये अनिवार्य प्रवृति की सार्वजनिक सेवाओं मुख्यत शिक्षा और स्वास्थ्य को तबाह कर उसके निजीकरण के दरवाज़े खोले गए हैं।

मगर इसके उदहारण भी हैं कि विश्व के अनेक देशों में शिक्षा पर इस प्रकार के हमले के विरोध में विद्यार्थियों और शिक्षकों ने सँघर्ष किया लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की।

भारत में भी अब ज़रूरत ऐसी ही एक बड़ी लड़ाई की है जहां विद्यार्थी और शिक्षक एकजुट होकर शिक्षा पर हो रहे सरकार के इन नवउदारवादी हमलों के विरोध में सड़कों पर उतरें और सरकार की नीतियों का प्रतिरोध करें। ऐसा नहीं हुआ तो हमारी आने वाली पीढ़ियां उच्च शिक्षा से वंचित होने के लिए अभिशप्त हो जाएंगी।

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