“एक डरा हुआ पत्रकार लोकतंत्र में मरा हुआ नागरिक पैदा करता है। इसलिए डरे नहीं निर्भीकता से पत्रकारिता करें।” एक कार्यक्रम के दौरान एनडीटीवी में कार्यरत पत्रकार रविश कुमार ने ये शब्द कहे थे। जिनसे ज़ाहिर होता है कि पत्रकारों को निष्पक्ष होकर अपनी रिपोर्ट को पेश करना चाहिए जो स्वस्थ नागरिक और स्वस्थ लोकतंत्र दोनों के लिए ज़रूरी है।
लेकिन हालात तो ऐसे जटिल हुए हैं कि बीते दिनों खुद पत्रकार रविश कुमार को ही डराने-धमकाने का मामला पब्लिक डोमेन में लाना पड़ा। हालांकि इससे पहले भी वे डराने-धमकाने व ट्रोल करने के मामलों से जूझते रहे हैं। लेकिन इस बार उनके भी सब्र का बांध लड़खड़ा गया है और उन्हें ये मामला आमजन के समाने लाना पड़ा।
इसी दौरान पत्रकार राणा अयूब को धमकियां और ट्रोल किए जाने का मामला भी खबरों और सोशल मीडिया पर छाया रहा। जिस मामले पर यूएन ने हस्तक्षेप करते हुए राणा अयूब के लिए भारत सरकार को सुरक्षा देने की मांग की है।
ताजा मामला पत्रकार बरखा दत्त को धमकियां मिलने का सामने आया है। जिसके बारे में बरखा दत्त ने अपने फेसबुक पेज पर बताया है। और सवाल किया है, “क्या ये मेरा ही देश है?” अगर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को बनाए रखने वाले पत्रकार ही सुरक्षित नहीं होंगे तो ऐसे में देश के क्या हालत बनेंगे? ये चिंतनीय विषय है। वहीं बीते वर्ष देश में अलग-अलग हिस्सों में पत्रकारों पर हमले बढ़े हैं।
बीते दिनों वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2018 के 180 देशों के सर्वे में भारत का स्थान का 136 से लुढकर 138 पहुंच गया है। पत्रकारों के लिए देश में कार्य करना दिन-ब-दिन कठिन होता जा रहा है।
इसके बाद कोबरा पोस्ट 136 पार्ट 2 के स्टिंग ने भारत के मीडिया की कार्यप्रणाली के पर्दे के पीछे की तस्वीर को सार्वजानिक कर दिया है जो कई लोगों की आंख में खटक रही है। बरहाल पत्रकारिता के इतिहास में स्पष्ट है कि पत्राकरिता अपने शुरुआती दौर से ही नियमों को ताक पर रखकर ही सच्चाई को जनहित में लाने के लिए नए रास्तों का निमार्ण करती रही है।
इन सब घटनाओं में जो सबसे अधिक चिंताजनक विषय है, वो इन पोस्टों पर किए गए कमेंंट्स है। इसे समझने के लिए यहां पत्रकार बरखा दत्त के स्टेटस पर किए गए कमेंट्स की स्क्रीन शॉट साझा कर रहा हूं। जिन्हें पढ़कर भारतीय नागरिकों की बदल रही मनोदशा का पता चलता है। ये सिर्फ राजनितिक पार्टी की आईटी सेल की सेना हो तो बात समझ में आती है, लेकिन ज़्यादातर लोग उसका हिस्सा नहीं है।
इन्हें पढ़कर कमेंट करने वालों की बीमार मानसिकता का पता चलता है। ज़्यादातर कमेंट्स कई सारे विषयों की एक साथ खिचड़ी पका रहे हैं। और अपना वॉट्सअप यूनिवर्सिटी का ज्ञान उड़ेलते हुए नज़र आ रहे हैं। क्या ये भारतीयों का बदलता चेहरा है।
यहां पर अलग मत रखने वालों को जीने का अधिकार नहीं दिया जाएगा। एक ही रंग का देश बनाने का खुमार इन लोगों पर क्यों चढ़ा हुआ है। इस डराने-धमकाने की संस्कृति की लपटों को हवा कौन दे रहा है। कौन चाहता है कि पत्रकार बोले तो सिर्फ उनके पक्ष में बोले, लिखे तो सिर्फ उनके पक्ष में लिखे। हुकूमत को इतना डर क्यों हो गया है पत्रकारों से।
सरकार को पत्रकारों द्वारा उठाए सुरक्षा के मसले पर ध्यान देना चाहिए। और साथ ही जो टूथलेस टाइगर के नाम से जानी जाने वाली विभिन्न मीडिया संस्थान है उन्हें भी इस मसले पर अपनी चुप्पी तोड़नी चाहिए।