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“हमारी दुनिया में नास्तिक हो जाने का अर्थ है पापी हो जाना”

ईश्वर पर विश्वास-अविश्वास व्यक्तिगत भाव है, ईश्वर को मानने के जितने कारण हैं, उतने ही कारण उन्हें ना मानने के भी हैं। ये अपने आप में एक बहुत बड़ा विमर्श है कि क्या ईश्वर है और यदि है, तो क्या ईश्वर का होना ना होना कोई मायने रखता है? कोरा आध्यात्म और असंवेदनशील तार्किकता दोनों अधूरे हैं। दुख के क्षण में या तो इन्सान ईश्वर के करीब चला जाता है, या कुंठित होकर उनसे दूर भी जा सकता है। अपने-अपने विश्वास की बात है। लेकिन, एक बहुत बड़ा अंतर है ईश्वर की आध्यात्मिक सत्ता में और धार्मिक रिवाज़ों में। बहुत संभव है कि कोई ईश्वर पर तो विश्वास रखे पर धर्म से उसका मोहभंग हो, तो प्रश्न ये भी उठाना चाहिए कि धर्म को ना मानने वाला नास्तिक है या ईश्वर को ना मानने वाला?

और जितना आप सभी धर्मों के ग्रंथो का अध्ययन करने लगेंगे आपके मन में द्वन्द उत्पन्न होने लगेंगे, आप प्रश्न उठाएंगे कि ग्रंथो में आपस में और ग्रंथो के भीतर अपने आप में इतना विरोधाभास क्यों है? आप प्रश्न करेंगे और उत्तर के नाम पर बहुत से धर्म के ठेकेदार उभरेंगे जो आपको बताएंगे कम डरायेंगे ज़्यादा।

क्या ये सत्य नहीं है कि बचपन से हमको यही सिखाया जाता रहा है कि बेटा, भगवान के बारे में कुछ मत बोलना, वो बुरा मान जायेंगे। अगर बचपन से ही धर्म की घुट्टी घोंट के हमारे मस्तिष्क में न भर दी गयी होती तो क्या हम सच के प्रति आस्था रखते? हम कहते हैं कि ईश्वर और धर्म हमारा नैतिक आश्रय है, पर क्या नैतिकता धर्म और आध्यात्म के बिना संभव नहीं? क्या ईश्वर को मानना आस्था है, या मनोवैज्ञानिक मजबूरी। हम डरते हैं, संशय में रहते हैं, दुनिया में जो भी नहीं समझ पाते, उसे ईश्वर की रचना बताकर तर्क और अनुसंधान की प्रक्रिया से इति श्री कर लेते हैं। घर में ईश्वर को मानते हैं, उपासना करते हैं, साधना भी करते हैं, लेकिन जब मंदिर से बाहर निकलकर तार्किक विश्व में प्रवेश करते हैं, उस विश्व में शायद ईश्वर और आध्यात्म भी संदेहास्पद हैं।

आध्यात्म अच्छा है पर ज़रूरी नहीं है जीने के लिए। ईश्वर को जो मानते हैं, उनके लिए वो सर्वस्व हैं। जो नहीं मानते उनसे बैर कैसा, ईश्वर की अनुभूति करना ज़िन्दगी की ज़रूरत तो नहीं। सब पढ़ो-गीता भी, कुरान भी, वेद भी, पुराण भी, लेकिन यदि कहीं आपको विश्वास के लिए अपनी बुद्धि को पीछे छोड़ना पड़े तो दस बार सोचना- ईश्वर का नकाब ओढ़कर ही हैवान भी पनपा करते हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म को मानना एक विश्वास है, पर सच में ये कहना इतना आसान है? अगर धर्म वास्तव में विश्वास है, तो विश्वास में उन्माद कैसा? कैसी अतिरेकता, कैसा महानता का भाव? क्या किसी विश्वास पर इस कदर आसक्त हुआ जा सकता है कि बाकि सारे विचार शिथिल हो जाए?

धर्म आसक्ति से दूर ले जाने के लिए है तो क्या धर्म से आसक्ति अपने आप में एक कमी नहीं है? अगर मैं अपने जीवन से धर्म निकाल दूंगा तो मेरे व्यक्तिगत जीवन पर, आचार-विचार पर कोई प्रभाव पड़ेगा, इस विषय में संशय है परन्तु सामाजिक रूप से ये किसी अपराध से कम नहीं है। नास्तिकता तो छोडों, वैज्ञानिक तार्किकता को भी नैतिक पतन का सूचक समझ लिया गया है।

आप प्रश्न नहीं उठा सकते, क्योंकि प्रश्न का उत्तर हमारे पास नहीं है, और प्रश्न का उत्तर इसीलिए नहीं है कि जो सबसे ऊंची आवाज़ में धर्म-धर्म चिल्लाते हैं, उनका धार्मिक ज्ञान उतना ही निम्न कोटि का होता है। हमारी दुनिया में नास्तिक हो जाने का अर्थ है पापी हो जाना, गौतम बुद्ध और महावीर दोनों ने पाया था कि उन्होंने अनुष्ठानों, रीति रिवाज़ों, ईश्वर और आत्मा पर प्रश्न उठाये। तो हमारे कई धर्मावलम्बियों का ये मानना है कि शंकराचार्य का योगदान इसीलिए भी  महत्त्वपूर्ण है कि उन्होंने बौद्ध धर्म द्वारा फैलाई गयी नास्तिकता को हटाकर वैदिक धर्म को पुनःस्थापित किया।

अब समझ नहीं आता कि नास्तिकता को अपराध समझना क्या नास्तिकता की कमी है कि वो अपनी उपयोगिता कभी सिद्ध नहीं कर पाए या ये आस्तिकों की जमात का अपने ऊपर संदेह दर्शाती है कि देखो वो व्यक्ति ये दर्शा रहा है कि जीने के लिए, नैतिकता के लिए, शांति के लिए धर्म की ज़रूरत नहीं। वो खुद कमज़ोर नहीं, तुम्हारी कमज़ोरी का मखौल उड़ा रहा है। वो उस भीड़ में शामिल नहीं होता जो भगवान का नाम लेकर मांस नोंचने लगते हैं।

हां, एक बहुत बुनियादी फर्क है ईश्वर को ना मानने में और धर्म को ना मानने में, और इस फर्क को आस्तिकों, नास्तिकों दोनों को  समझना चाहिए। ईश्वर पर अविश्वास उस सत्ता को ना मानना है जिसे लोग सृष्टि के सृजन, पोषण और अंत का आधार मानते हैं। धर्म को ना मानना उस व्यवस्था की आलोचना है जो आपको उस सत्ता तक पहुंचाने का दावा करती है। जो विश्वास के साथ आरम्भ होकर आपकी पहचान बन जाती है।

आपके भीतर संशय के बीज उत्पन्न होते हैं तो क्या वो निरर्थक और अतार्किक से समझ आने वाले रीति रिवाज़ों और परम्पराओं के कारण होते हैं अथवा जीवन में आने वाले क्लेशों के कारण किसी दैवीय शक्ति पर उपजे अविश्वास के कारण। क्या हमारा अविश्वास समाजिक है, सांस्कृतिक अथवा मनोवैज्ञानिक? ये प्रश्न इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यही निश्चित करेगा कि क्या आप व्यक्तिगत रूप से धर्म व ईश्वर को अस्वीकार करते हैं, कठोर शब्दों में इसकी भर्त्सना करते हैं या इसे समाप्त करने के लिए मुहीम छेड़ते हैं। ऐसे लोग भी बहुतायत में मिलेंगे जो यूं तो धर्म को शंका की दृष्टि से देखते हैं, परन्तु उनका पारिवारिक और सामाजिक माहौल उन्हें इसकी इजाज़त नहीं देता कि वे खुलकर इसे अभिव्यक्त कर सकें। वो बाहरी, सतही तौर पर इसका पालन करते रहते हैं, भले ही भीतर से इसे बहुत अहमियत न देते हो। यही कारण है कि आस्तिकता और नास्तिकता के बीच हमको कई और श्रेणियां मिलती हैं, जो बताती हैं कि आस्था और उसकी अभिव्यक्ति एक गहरी बात है जिसके सभी पक्षों को धर्म की सामाजिक और प्रचलित धारना समाहित करने में सक्षम नहीं है। कोई agnostic है, कुछ कहते है weak theism या weak atheism. कोई मानकर भी नहीं मानता, और कोई न मानकर भी मानता है।

मगर कई बार सामाजिक सन्दर्भ में धर्म के कुछ ऐसे पक्ष दृश्यमान होते हैं जो आत्मा को विचलित कर जाते हैं। धर्म अब आपका विश्वास कितना रह गया है, ये कह नहीं सकता, क्योंकि कई बार ये एक सामाजिक बोझ लगने लगता है। एक थोपी गयी अस्मिता प्रतीत होती है। कोई चाहे ईश्वर के विषय में कैसे भी विचार रखे, पर समाज की नज़र में उसे धर्म ‘प्रदान’ कर दिया जाता है, जो आजीवन आपकी पहचान बन जाती है।

विडम्बना ये कि पहचान आपके नाम से ज़ाहिर हो जाती है, “अरे लेकिन तुम तो हिन्दू हो?” क्यों, क्योंकि तुम्हारा नाम हिन्दू है? अब ये हिन्दू नाम या मुस्लिम नाम क्या होते हैं, ये मेरी समझ से परे हैं। पूछने की भी ज़रूरत नहीं, अगर आपका नाम अहमद है तो आप मुसलमान हैं, रमेश है तो हिन्दू। शायद यही कारण था कि एक फिल्म में ये संवाद प्रयोग किया गया है, “इंसान नाम में मज़हब ढूंढ लेता है”।

अगर आपकी धार्मिक पहचान यही पर समाप्त हो जाती तो फिर भी ठीक था। पर यहां तो लोग इंसानियत भी मज़हब देखकर दिखाते हैं।

हमारा भूगोल, इतिहास, नैतिकता, विज्ञान सब हमारा धर्म तय करता है। लोग या तो अपना धर्म अपनी वेशभूषा में, अपने शरीर पर अंगीकार किये फिरते हैं, यहां ऐसे चिन्ह हम उनपर थोप देते हैं, फिर चाहे वो कितना ही मूर्खतापूर्ण क्यों ना लगे। ये सोचना कि मुसलमान कहीं का भी हो, उर्दू बोलेगा, लोगों के मन में इतना रचा बसा हुआ है कि सामने देखते ही हमारे मुंह से उर्दू झड़ने लग जाती है। हिन्दुओं की पहचान तिलक और केसरिया साफा है, मुसलमानों की टोपी। और ये बखेड़ा यही समाप्त नहीं होता, ये और अधिक घृणित रूप लेता जाता है। सब खून के प्यासे हो जाते हैं, क्या ये कमी हमारी आस्था की है, जिसे हर समय अपनी महानता की वैधता चाहिए, या ये कमी हमारी है कि हम चाहते है कि जो हम चुने वो सब से महान हों।

ये काफी नहीं कि आप पूजा स्थलों पर स्वयं साधना में व्यस्त रहें, कोई भी पूजा या इबादत तब तक पूरी नहीं होती जब तक किसी “कम आस्था वाले” को कोस न ले।

कोसना कहीं न कहीं आपको इस बात की संतुष्टि प्रदान करता है कि देखो मैं अपने विश्वास पर कितना अडिग हूं। उस विश्वास की कीमत सब चुकाते हैं और यही अंधविश्वास हमें बार-बार ये सोचने पर विवश करता है कि अगर हमें विश्वास है तो क्या ज़रूरी है कि औरों को भी उस विश्वास पर उतना ही विश्वास हो? अगर धर्म के नाम पर अधर्म फैलाया जाए, फिर चाहे आप उसे धर्म युद्ध कहें या जिहाद या चाहें कुछ भी न कहें, तो क्या वो धर्म है या अधर्म?

अगर मेरा धर्म मेरी मूलभूत मानवीयता के आड़े आता हो तो क्या कोल्हू के बैल की तरह धर्म को कंधे पर लेकर फिरते रहना चाहिए? ईश्वर प्राप्ति के लिए धर्म ज़रूरी है या नहीं, अथवा ईश्वर का होना ही आवश्यक है या नहीं, ये अलग तरह का प्रश्न है। समाज के नज़रिए से एक वाजिब सवाल ये हो सकता है कि क्या धर्म मेरे समाज की कुंठा है? या विश्वास मेरे सोच की सीमा तय करती है? क्या समाज मेरे विश्वास को दिशा दिखाता है? इकबाल तो कहकर गए कि मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। पर क्या हमारा मज़हब हमको बैर करना नहीं सिखा रहा है और अगर नहीं, तो कहां से आ रही है ये नफरत? क्या हम ऐसे धर्म के लायक हैं, अगर उस विश्वास से हम अपनी  नफरत को अलग ना कर सकें।

ये बात सोचने समझने की है, इसका जवाब शायद अवचेतन में मिले। अगर समाज से ये जवाब मांगेंगे, तो शायद मिले एक नया “विश्वास”, नयी “आस्था”, नया “धर्म”।

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