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क्या देशहित के नाम पर एकजुट हो रही विपक्षी पार्टियों का मकसद सिर्फ मोदी विरोध है?

2019 लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है और इसके साथ राजनीतिक गलियारों में भी हलचल तेज़ हो गई है। सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता-कार्यकर्ता चुनाव की तैयरियों में जोर-शोर से लग गए हैं। चुनाव के लिए एजेंडा, भाषण, रैलियों वगैरह की तैयारी शुरू हो गई हैं।

पार्टियां अपनी-अपनी विचारधारा और अपने-अपने मुद्दों के साथ मैदान में कुदने के लिए तैयार हैं। लेकिन इस चुनाव में एक मुद्दा जो सभी विपक्षी पार्टियों को एक साथ एक मंच पर खड़ा करने में सफल रहा है वो मोदी लहर को 2019 में रोकने की है।

वैसे भले ही एक दूसरे को ये नेता फूटी आंख ना सुहाते हों, लेकिन जहां मोदी को रोकने की आवाज़ उठती है वहीं विपक्षी दलों में ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ का गीत बजने लगता है।

मैं कोई मोदी प्रशंसक नहीं हूं। लेकिन 2014 के बाद से राजनीति में मोदी के खिलाफ विपक्षी दल की एकजुटता देख मन में एक बार ये सवाल ज़रूर उठता है कि आखिर ऐसा क्या है मोदी में जिसकी वजह से अब तक अलग-अलग खड़े ये दल एक साथ आने पर मजबूर हो गए हैं? आखिर क्यों किसी दल में इतनी ताकत नहीं है कि भाजपा या मोदी के खिलाफ अकेले टक्कर ले सकें? देश के अहम मुद्दों पर जिन्होंने कभी आंख से आंख नहीं मिलाई हो उन्हें मोदी ने एक साथ खड़ा कर दिया है।

राहुल गांधी ने कॉंग्रेस का कार्यभार संभालने के साथ अपने प्रधानमंत्री बनने की भी इच्छा ज़ाहिर कर दी है। लेकिन, उनके भाषण में भी देश की तरक्की पर उनके विचार से ज़्यादा प्रधानमंत्री मोदी पर हमले होते हैं। राहुल आज कल जब भी कहीं रैली या भाषण के लिए जाते हैं तो मोदी नाम ही जपते हैं। और ये सिर्फ कॉंग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ ही नहीं है दूसरी पार्टियों के नेता भी सिर्फ मोदी पर निशाना साधते नज़र आते हैं।

2014 से पहले जब हम नेताओं के भाषण सुनते थे तो अपनी सहयोगी पार्टी को छोड़ वह नेता अपने हर द्वंदी का काला चिट्ठा खोल कर रखता था। लेकिन अब आप किसी भी पार्टी के नेता का भाषण सुन लें आपको मोदी विरोध के अलावा और कोई सुर नहीं सुनाई देगा।

मोदी लहर को रोकने की कवायद इस हद तक तेज़ है कि कर्नाटक में कॉंग्रेस ने दूसरी सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद जेडीएस के कुमारस्वामी को राज्य के मुख्यमंत्री का ताज थाली में परोस कर दे दिया। कर्नाटक में कॉंग्रेस के लिए सरकार बनाने से ज़्यादा भाजपा को सरकार बनाने से रोकने की होड़ थी।

चुनाव परिणाम के बाद चले दांव-पेंच से राहुल तो दूर रहें, लेकिन अंत में जब कॉंग्रेस और जेडीएस की मेहनत रंग लाई और कुमारस्वामी की ताज पोशी का समय निश्चित हुआ तो राहुल ने सामने आकर जनता को जीत की बधाई दी। इतना ही नहीं कुमारस्वामी का शपथ ग्रहण समारोह विपक्षी दलों के लिए अपनी एकता दिखाने का मंच भी बना, जिसमें दीदी से लेकर बहनजी तक नज़र आईं। यहां तक कि सीपीआई नेता येचुरी भी इस मंच पर विपक्षी नेताओं से कंधे से कंधा मिलाते दिखें, जबकि उनकी पार्टी की विचारधारा वहां मौजूद पार्टी के नेताओं से विपरीत दिशा में बहती है।

वैसे मोदी को रोकने के लिए सबसे ज़्यादा ज़हमत तो बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उठाई है। जब बंगाल सांप्रदायिक हिंसा की आग में जल रहा था तो दीदी दिल्ली में भाजपा के खिलाफ तीसरे मोर्चे की तैयारी में ज़मीन-आसमान एक कर रही थीं। बंगाल में कानून व्यवस्था को ताक पर रखकर 3 दिन दिल्ली में अपना डेरा जमाने आईं ममता बनर्जी ने विपक्षी नेताओं, शरद पवार और टीडीपी के नेताओं से मुलाकत की।

लेकिन राजनीति के जगत में सबसे बड़ा अचंभा लोगों को तब देखने को मिला जब एक दूसरे के धुर विरोधी रहे सपा-बसपा का गठबंधन हुआ। बिहार महागठबंधन के बाद ये कयास लगाई जा रही थी कि उत्तर प्रदेश में भी मुलायम और मायावती साथ आ सकते हैं, लेकिन मायावती ने तब इससे साफ इंकार कर दिया था। लेकिन शायद लोकसभा और राज्यसभा में अपनी सत्ता गंवाने के बाद और प्रदेश चुनाव में भी कोई बेहतरीन प्रदर्शन ना कर पाने के बाद सत्ता में वापसी का दरवाज़ा सपा के साथ गठबंधन करके ही नज़र आया इन्हें।

मायावती ने सत्ता के लिए 1995 में लखनऊ गेस्ट हाउस में सपा नेताओं द्वारा अपने ऊपर हुए जानलेवा हमले को पीछे छोड़ने का एक बड़ा निर्णय लिया। और इस निर्णय का ही नतीजा था कि भाजपा को इस गठबंधन के कारण गोरखपुर और कैराना उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ा। कुछ दिन पहले सपा नेता अखिलेश यादव ने एक प्रेस कॉंग्रेस में ये तक कहा था कि मोदी को 2019 में रोकने के लिए अगर उन्हें सपा की कुछ सीटों को बसपा के लिए छोड़नी पड़ी तो वो ऐसा करने से पीछे नहीं हटेंगे। अखिलेश यादव का ये बयान विपक्षी दल में मोदी के खिलाफ एकजुटता का बहुत बड़ा प्रमाण है।

कॉंग्रेस नेता शीला दीक्षित ने भी 2019 में सभी पार्टियों को राहुल गांधी के नेतृत्व में मोदी के खिलाफ महागठबंधन बनाने की अपील की है। वैसे तो विपक्षी खेमे में शीला जी के कहने से पहले ही महागठबंधन की तैयारी शुरू हो चुकी है लेकिन राहुल उसके नेता होंगे या नहीं ये कह पाना मुश्किल है क्योंकि राहुल अपनी पार्टी को छोड़ किसी भी दूसरी पार्टी की पसंद नहीं हैं। ममता बनर्जी ने तो साफ कर दिया है कि वह राहुल गांधी के पीछे चलने को तैयार नहीं हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव भी राहुल गांधी को लेकर बहुत सहज नहीं हैं। राहुल इस महागठबंधन के नेता बनकर उभरेंगे या कर्नाटक की तरह ही कॉंग्रेस को दूसरी पार्टियों के सामने झुककर सिर्फ सहयोगी पार्टी की भूमिका से काम चलाना पड़ेगा ये कहना आसान नहीं है।

मोदी के खिलाफ बन रहे इस महागठबंधन की शुरुआती दौर तो सुहाने मौसम की तरह नज़र आ रही है, लेकिन असली कसौटी तब होगी जब इस महागठबंधन के नेता का चुनाव करना होगा। लाल किले पर भाषण देने की अभिलाषा हर एक नेता में होगी लेकिन इसमें बलिदान कौन देगा ये बड़ी बात होगी।

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