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“भैया की मौत के बाद समझ आया कि जातिवाद का ज़हर समाज के कण-कण में है”

मेरे बड़े भैया बिजली विभाग में दिहाड़ी मज़दूरी पर हेल्पर का काम करते थे, ज़ाहिर है उनको बिजली से संबंधित अधिकांश कामों में महारत हासिल थी। हर किसी की मदद करने की प्रवृत्ति ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया था। 28 दिसम्बर 2014 को 11 केवी लाइन सुधारते समय विभाग के कर्मचारियों की लापरवाही की वहज से दुर्घटना का शिकार हो गए। कुछ ही देर बाद उनकी मृत्यु हो गयी।

कुछ दिनों बाद भैया का पेनकरण (देवांजली) कार्यक्रम रखा गया, जो दो दिन का होता है, पहले दिन गॉंव समाज और करीबी नाते रिश्तेदार की मदद से आरती उठनी की विधी होती है। उस दिन गॉंव समाज वालों को बुलावा देने के बावजूद रात के 9 बजे तक भी कोई नहीं आया। कुछ देर बाद समाज के ही 3-4 लोग आए, उनमें से एक शिक्षक थे, रिश्ते में मेरे मामा जी ही लगते थे, वे किसी के ना आने का कारण बताते हुए कह रहे थे,

पोस्टमार्टम के समय मुर्दाघर में डेड बॉडी को वहां के झाड़ूदार (मेहतर) ने छू लिया था, इसलिए तुम बिटार (छूत) हो गए हो, इसके निराकरण के लिए तुमको काला चीवा (मुर्गी/मुर्गा) देना पड़ेगा, हांडी, चटवा, झाड़ू और जितने भी मिट्टी के बर्तन हैं, सबको फेंकर शुद्ध होना होगा, तब समाज आएगा और कार्यक्रम सम्पन्न होगा। 

एक ज़िम्मेदार शिक्षक के ये उदगार हैं, क्या शिक्षा देते होंगे ये बच्चों को स्कूल में आप सोच सकते हैं। यह सुनकर हम लोगों ने भी ऐसी घटिया मानसिकता वाले लोगों और समाज का प्रतिकार किया। कार्यक्रम बगैर समाज बगैर रिश्तेदारों की मदद से सम्पन्न किया गया, जिसमें गैर समाज के लोगों का पूरा सहयोग था। इसके बाद से समाज वालों ने हमारा बहिष्कार कर दिया। हम झुके नहीं घटिया और तुच्छ मानसिकता वाले शिक्षकों के जैसे कइयों से आज भी लड़ रहे हैं।

वैज्ञानिक सोच वाले लोगों को अपनों द्वारा ही अलग-थलग क्यों कर दिया जाता है?

क्या सफाई कर्मचारी जिनकी जाति “भंगी” या मेहतर होती है, वे इंसान नहीं होते हैं? उनमें लाल खून की बजाय काला खून बहता है? जिसमें से तथाकथित सभ्य और उच्च समझे जाने वालों को दुर्गंध आती है? क्या कोई उनसे सिर्फ इसलिये अमानवीय व्यवहार करेगा क्योंकि वे तथाकथित सभ्य और उच्च समझे जाने वालों द्वारा फैलाई गई अपार गंदगी को साफ करते हैं? इस नज़रिए से तो गंदगी फैलाने वाले तथाकथित सभ्य और ऊंचे लोग महा दलिद्दर कहलाना चाहिए।

अभी हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली से लेकर आगरा, फिरोज़पुर, मुम्बई, हैदराबाद आदि कई बड़े शहरों में सीवर (गटर) लाइन साफ करते हुए कई मज़दूरों की मौत हो जाने की खबर आई है, देश में अमीरी-गरीबी की खाई इतनी बढ़ चुकी है कि सफाई मज़दूरों, जिनकी जाति “भंगी” या मेहतर होती है को गटर और मेनहोल में सफाई करने घुसना ही पड़ता है।

इनकी हालत मरता क्या ना करता जैसी हो गयी है। आज़ादी के 70 साल बाद भी सफाई कामगारों की स्थिति में सुधार का ना होना बताता है कि सफाई कामगार सिर्फ इसी दयनीय स्थिति में जिए और दर्दनाक मौत मरते रहें।

आलम यह देखिए गंदगी फैलाने वाले तथाकथित सभ्य और उच्च कहे जाने वाले इनकी मौत पर आह भी नहीं करते। घृणा, नफरत और जाति पाति के भागीदार होते हैं ये “भंगी” और मेहतर। सभ्यों द्वारा इंसानों का दर्जा नहीं मिलता है, सरकार इनकी सुरक्षा और मेडिकल का ध्यान नहीं रखती है। मोदी का स्वच्छ भारत मिशन महज़ हवा हवाई ही है, जबकि हर रोज़ सफाई कामगार कहीं ना कहीं मर रहे हैं। इनके बारे में कब सोचा जाएगा? आखिर यह काम एक ही जाति विशेष के लोग क्यों करें?

मैग्सेसे अवॉर्ड विजेता कार्यकर्ता बेजवाड़ा विल्सन कहते हैं, “अपनी जाति भूलने के लिए हमें विशेषाधिकार की ज़रूरत नहीं होती”।

ट्रेन, मेट्रो रेल में सफाई कामगार या किसी गरीब मज़दूर को बेतहाशा गंदगी फैलाने वाले साफ सुथरा लोग, अजीब ही घृणास्पद नज़रों से देखा करते हैं। जैसे वे इस देश के नहीं, कहीं से लाये गए गुलाम हों, सम्मान से बैठने के लिए जगह नहीं। अगर धोखे से टच भी कर जाएं तो साफ सुथरे दलिद्दर लोग आग बबूला होकर गालियां देते हुए निकल जाते हैं और कामगार इसी को अपनी नियति समझकर चुप रह जाते हैं।

युवाओं को सोचना होगा कैसा भारत का निर्माण कर रहे हैं, नदियों में पानी की बजाय बजबजाता हुआ कूड़ा कचरा से सना गंदा पानी चाहिए या साफ पानी चाहिए। झीलों तालाबों में गंदगी रहित पानी चाहिए या गटर मिला हुआ सड़ांध पानी। बिलबिलाते हुए नाले चाहिए या साफ। सीवर लाइन का सही ट्रीटमेंट चाहिए या गंदगी का दलदल।

तो आइए सफाई कामगारों, “भंगियों”, मेहतरों से प्यार करें, उन्हें सम्मान दें, गले लगाएं, उन्हें उनका वाजिब हक दिलाएं। वे हैं तो हम हैं सरकार के भरोसे बैठे तो 50 साल में धरती को कैंसर हो जाना है, आइये जागरूक नागरिक होने का फर्ज निभाएं।


फोटो प्रतीकात्मक है

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