Site icon Youth Ki Awaaz

शहरीकरण की आड़ में पेड़ों का काटा जाना कहां की समझदारी है?

रायबरेली ज़िले का विकास बेतरतीब ढंग से हुआ है। पुराने लोग बताते हैं कि पहले दो-चार मौहल्ले थे और बाकी सब जंगल था। धीरे-धीरे आबादी के साथ मौहल्लों और दुकानों की संख्या बढ़ती चली गयी। हर दूसरी गली में स्कूल खुल गए। सरकारी-गैर सरकारी बैंक आ गए और खेल के मैदान और जंगल शहर के नक्शे से गायब हो गए। हां, ज़िले के किसी मोड़ पर खड़े होकर देश-दुनिया की पंचायत करने का सिलसिला बदस्तूर जारी है।

अप्रैल-मई-जून का महीना हमेशा से शहर से गांव की ओर जाने वाला समय रहता था। घर के बड़े बुजुर्गों से मिलना, नहर-पोखर में नहाना और पेड़ से आम-जामुन तोड़कर लाना और साथ में खाना गर्मी के दिनों के अहम हिस्से माने जाते रहे हैं। गांव के घरों का एक-आध कोना ऐसा रहता था जहां गर्मी की तपिश ताज़ी-ठंडी हवा में बह जाती थी। यह सब बदल गया है। और जो बचा है वह भी बदल रहा है।

बदलाव ज़रूरी है पर उस बदलाव की क्या कीमत है उसका आकलन भी उतना ही ज़रूरी है। वर्षा का चक्र टूटा है, गर्मी में पारा पैंतालीस के पार चला जाता है और दोपहर-शाम की दादी-नानी वाली कहानियां भी कम हो गयी हैं। बहुत कुछ हमारे नियंत्रण में है और बाकी नहीं है। जो है उसपर और काम करने की ज़रूरत है।

पेड़-पौधे पारिस्थितिकी का महत्वपूर्ण हिस्सा है और इनकी देखभाल, रख-रखाव हम लोगों के नियंत्रण में है। रायबरेली और आस-पास के क्षेत्रों में सरकारी-गैर सरकारी विद्यालयों की मदद से वृक्षारोपण का एक अभियान चलना चाहिए। भारत के कुछ जगहों पर संतान के जन्म पर पेड़ लगाने की परंपरा है। हमलोग भी वह परंपरा अपना सकते हैं।

फलदार और छायादार पेड़-पौधे लगाए जाएं, उनकी देखरेख हो तो पर्यावरण प्रदूषण तो कम होगा ही, मौसम के बदलाव से निपटने के संसाधन भी मिलेंगे। आम, अमरुद, नीम, शीशम, कटहल, आंवला इत्यादि के पौधे वन विभाग को सामाजिक वानिकी के अंतर्गत लगाने के लिए जनता को प्रेरित करना चाहिए। मनरेगा और ग्राम विकास की अन्य योजनाओं को भी वृक्षारोपण के कार्यक्रम से जोड़ा जा सकता है। पर्यावरण स्कूलों के पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाना चाहिए। आज हम जितने भी सड़क-भवन देखते हैं वे कहीं-न-कहीं जंगल से होकर या जंगलों पर बने हैं लेकिन एक के लिए दूसरे को नष्ट किया जाना ज़रूरी नहीं है।

Exit mobile version