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सिर्फ स्कूली शिक्षा से नहीं, माता-पिता के योगदान से संभव है बच्चों का संपूर्ण विकास

गुजरात के सूरत ज़िले के आदिवासी बाहुल्य उमरपाड़ा प्रखंड में गांधी फेलो के रूप में काम करने के दौरान मुझे बच्चों के समग्र विकास में विद्यालय, समाज तथा माता-पिता की भूमिका को समझने का मौका मिला। स्कूल में काम करने के दौरान मैंने ये महसूस किया कि बच्चे आज स्कूल में पढ़ने आते हैं, शिक्षक उन्हें पढ़ाते हैं, घंटी बजती है और सारा काम अपने तय समय पर होता है।

छुट्टी होने पर बच्चे खुशी-खुशी अपने घर की ओर निकल पड़ते हैं। शिक्षक खुश होते हैं क्योंकि उनकी दिन की ड्यूटी समाप्त हो जाती है। माता-पिता खुश होते हैं कि उनके बच्चे स्कूल में दिन पूरा करके आते हैं और बच्चे भी अपनी खुशी छुट्टी की घंटियों में खोज ही लेते हैं।

लेकिन जब मैंने छुट्टियों के बाद बच्चों के घर घूमना शुरू किया तब जाकर देखा कि सब एक रेस में दौड़ लगा रहे हैं और वो रेस है गणित सिखने की, वो रेस है सिलेबस पूरा करने की और इम्तहान में अच्छे नंबर लाने की ताकि समाज में अपना सीना गर्व से ऊंचा कर सकें। सब लोग सिर्फ कौशल तक ही सीमित रहना चाहते हैं, व्यक्तित्व का निर्माण नहीं करना चाहते। लेकिन इसके ठीक विपरित मैंने ये भी देखा कि माता-पिता घर में बच्चों को डांट लगा रहे हैं कि अच्छे से बात नहीं करना आता, बड़ों की इज्ज़त नहीं करता तथा ऐसे अनेक प्रकार के दोषारोपण का हवाला देते हुए बच्चों को डांट रहे हैं।

मुझे इस घटना के बाद समझ में आया कि शिक्षा को किस तरीके से लोगों ने स्कूल के नाम से बनी एक इमारत में सिमटा कर रख दिया है तथा उस इमारत में कार्य करने वाले गुरु भी सिलेबस और सरकारी आदेशों का पालन करने में ही अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर पूरा करने में लगे हैं।

वास्तविक माता-पिता एवं समुदाय की भागीदारी तब मौजूद होती है, जब छात्रों के लिए सीखने का परिणाम और सिखाने के प्रयास को अधिकतम करने के लक्ष्य के साझा लक्ष्य के साथ माता-पिता और शिक्षक के बीच सार्थक सम्बन्ध होता है। जबकि वास्तविकता यह है कि स्कूल के रूप में बनी इमारत कभी भी समूल पाठशाला नहीं बन सकती, क्योंकि बच्चे की एक पाठशाला तो इस इमारत के बाहर का समाज भी है, होना भी चाहिए क्योंकि कल को उसी समाज में जो जाना है।

जहां अनेक लोग अपनी रोज़मर्रा के कामों को करने में लगे हैं, बच्चे का वो घर है, जहां वह खेलता है, खुल कर सांस लेता है और जहां वो कुछ भी बोलने में संकोच नहीं करता और ऐसे परिस्थिती में बच्चा हर दिन कुछ ना कुछ सीखता है। और आज हमने अपने घर के माहौल को इस कदर खराब कर दिया है कि वो हमारे बच्चे के अनुकूल नहीं रहा, पर बच्चों का क्या, उनका सीखना तो एक निरंतर प्रक्रिया है।

अतः जो इस बिगड़ी परिस्थितियों को भी सीख लेता है और बोलना एवं करना शुरू कर देता है और बाद में जब माता-पिता को उनके अपने ही शब्द अपने बच्चों के मुख से सुनते हैं तो सारा दोषारोपण उनपर और शिक्षक पर कर देते हैं। हद तो तब होती है, जब समाज भी स्कूल और बच्चों को दोषी समझ बैठते हैं।

जबकि सच्चाई यह है कि जो समाज बच्चे की पाठशाला, वहां की गतिविधियां, लोगों के व्यवहार, उनके तौर तरीके उनके पाठ्यक्रम होने चाहिए थे, माता-पिता एक गुरु की भूमिका में होने चाहिए थे लेकिन इसके ठीक उलट समय का पहिया ऐसा घुमा कि ये सब एक इमारत में सिमट कर रह गयी और भोले-भाले बच्चों के ऊपर सारा बोझ आ गया।

माता-पिता को यह विश्वास करना चाहिए कि वे अपने बच्चों के विकास और शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और अपने बच्चों की सफलता में मदद करने के लिए आत्म-प्रभावकारिता की सकारात्मक भावना रखना चाहिए।

अतः जब तक हम गुरुकुलिकरण की शिक्षा अर्थात फिर से हम समाज को पाठशाला के रूप में, वहां के लोगों को, माता-पिता को गुरु के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे तब तक सारा बोझ बच्चों के सर से नहीं हटने वाला और समग्र विकास की बात करना शायद बेईमानी होगी।

गिजू भाई ने अपनी पुस्तक में जितने भी पढ़ाई के तरीकों की चर्चा की है सब में एक बात तो स्पष्ट है कि उन्होंने ने भी कक्षा कक्ष से बाहर ही सारे प्रयास किये और उसमें सफतला पायी। अतः बच्चों के समग्र विकास के दृष्टिकोण से विद्यालय, समाज तथा माता-पिता की अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी होगी तब जाकर सही मायने में हम बेहतर भविष्य गढ़ सकते हैं।

शिक्षा किसी भी व्यक्ति के जीवन का आवश्यक व महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। मनुष्य के व्यक्तिगत, सामाजिक, नैतिक, आर्थिक एवं राजनैतिक विकास में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कहा भी जाता है कि एक शिक्षित समाज ही, प्रगतिशीलता की निशानी है।

प्रायः समाज द्वारा सरकारी स्कूल व्यवस्था को देखने में एक निराशा का भाव दिखता है। हालांकि ये निराशा के भाव प्रायः निराधार ही नज़र आयेंगे। जब हम यह सोचेगें कि राष्ट्र के तौर पर सरकारी शिक्षा व्यवस्था के लिए हम जो भी कर रहे हैं, क्या वह सचमुच पर्याप्त है?

यह सवाल स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं, समाज एवं अभिभावक की सहयोगात्मक योगदान से लेकर अध्यापक की कर्तव्यनिष्ठा तक है। शिक्षा के क्षेत्र में समुदायों का सहयोग प्राचीन काल से चला आ रहा है। आज भी है और भविष्य में भी बिना इसके सहयोग के शिक्षा की उचित व्यवस्था करना संभव नहीं होगा। आज हमारी शिक्षा का उद्देश्य बच्चों का शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक, नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास करना है और उन्हें किसी उद्योग अथवा उत्पादन कार्य में निपुण कर लोकतंत्र में सबल, योग्य एवं सुसंस्कृत नागरिक बनाना है। तथा देश का नैतिक पतन रोकने के लिए आज आध्यात्मिक शिक्षा की भी आवश्यकता अनुभव की जा रही है। विद्यालय को समुदाय इन सब उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता करता है। क्योंकि बच्चों की शिक्षा में माता-पिता एवं समुदाय का सहयोग और योगदान उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की एक बच्चे को स्कूल जाना एवं उसके अभ्यासों में नियमित रूप से भाग लेना।

कार्य के दौरान अवलोकित की गई चुनौती-

अपने कार्य के दौरान स्कूल एवं समुदाय विज़िट के दरम्यान कुछ चीजें जो समझ मे आयी (जो निम्न है) कि इनके अभाव में हम समुदाय और अभिभावक की सक्रियता बच्चों की शिक्षा में नहीं ला सकते हैं। या यूं कहें कि हमें इन बिंदुओं पर ही कार्य करने की ज़रूरत है, जिसे हमने अपने पिछले 4 महीनों के कार्य के दौरान किया भी है। जिसका परिणाम सकारात्मक निकल कर आया है। वो बिंदू निम्नवत है।

1. एक दूसरे की सेवा की भावना, 2. विद्यालय का ज्ञान, 3. समुदायिक पृष्ठभूमि के अनुसार बच्चों का अनुकूलन, 4. समुदाय का ज्ञान, 5. सहायता की भावना, 6. निकटता का प्रयास।

इन सभी बिंदुओ पर अमल करके ही हम विद्यालय के प्रति समुदाय और अभिभावक की एवं समुदाय के प्रति विद्यालय की सक्रियता को सुनिश्चित कर सकते हैं। दोनों का मुख्य उद्देश्य बच्चे के ज्ञान और व्यक्तित्व के सभी पहलुओं को विकसित करना है। बच्चों का विकास ही समुदाय का विकास है। इसके लिए बहुत आवश्यक है कि स्कूल का संचालन एवं कार्यों का निष्पादन सही तरीके से हो और ऐसा करते हुए समुदाय की आवश्यकताओं को ध्यान में रखें।

चुनौती का समाधान/उपाय या समुदाय एवं अभिभावक इंगेजमेंट हेतु हमारा प्रयास-

उपरोक्त छह चुनौतियों को हम निम्न तरीके से खत्म करने का प्रयास कर सकते हैं, और हम कर भी रहे हैं जिसमें हमें सफलता भी मिली है। लेकिन एक अहम बात यह है कि इसमें धैर्य के साथ दृढ़तापूर्वक किया गया कार्य सफलता को सुनिश्चित करेगा। विद्यालय और समुदाय में सहयोग तभी संभव है जब समुदाय विद्यालयों के प्रति और विद्यालय समुदाय के प्रति अपने अपने कर्तव्यों का निर्वाह करे।

1. एक दूसरे की सेवा की भावना- विद्यालय की प्रकृति/वातावरण में समुदाय सेवा की सकरात्मकता छिपी होनी चाहिये। समुदाय शिक्षा पर अपनी सर्वस्व (वर्तमान में पूंजी ही सर्वस्व है जो सत्य है) व्यय करता है परन्तु इसके बदले में शिक्षण संस्थाओं से यह भी आशा रखता है कि वह अपना कार्यक्रम समुदाय की सेवा के लिए आयोजित करेंगे।

2. विद्यालय का ज्ञान- विद्यालय को समुदाय में अपने शैक्षिक कार्यक्रम का ज्ञान समय-समय पर देते रहना चाहिए, क्योंकि समुदाय अपने बच्चों को विद्यालय में भेजता है। तो समुदाय यह भी जानने का हकदार होता है कि विद्यालय उनके लिये क्या कर रहा है। इसके लिए विद्यालय प्रगति रिपोर्ट, पत्रिका डिजाइन आदि के माध्यम से जानकारी दे सकता है।

3. समुदायिक पृष्ठभूमि के अनुसार बच्चों का अनुकूलन- विभिन्न प्रकृति के समुदायों में विद्यालय की भूमिका भिन्न-भिन्न होगी और होना भी चाहिए, क्योंकि समुदाय की प्रकृति के अनुसार बच्चों की आवश्यकतायें भी भिन्न-भिन्न होती हैं। स्कूल में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि सामुदायिक पृष्ठभूमि के अनुसार बच्चे का अनुकूलन किया जाये ताकि बच्चा बड़ा होकर समुदाय का एक उपयोगी अंग बन सके।

4. समुदाय का ज्ञान- समुदाय और विद्यालय में अच्छे संबंध स्थापित करने के लिये यह आवश्यक है कि सिर्फ माता-पिता ही नहीं अपितु समुदाय भी विद्यालय का ध्यान रखें। समुदाय को विद्यालय की आवश्यकताओं, भौतिक और मानवीय साधनों का ध्यान रखना चाहिये। जो अवलोकन, साक्षात्कार और सक्रियता के अनुभवों से रखा जा सकता है। इससे समुदाय विद्यालय को समझ सकेगा और संबंध सुदृढ़ होंगे, इसके लिए समुदाय को निश्चित अंतराल पर अभिभावक शिक्षक बैठक, आम बैठक और समुदाय के बुद्धिजीवियों का समय-समय मार्गदर्शन एवं उनकी सक्रियता समवृद्धि को निश्चित करना चाहिए।

5. सहायता की भावना-  समुदाय को विद्यालय की सहायता करने के लिये सैदव तैयार रहना चाहिए, क्योंकि विद्यालय तब ही महत्वाकांक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप बन सकेगा। इसके लिए शिक्षकों का दायित्वबोधक एवं कर्तव्यनिष्ठ होना आवश्यक है। समुदाय के सदस्य/संस्था स्कूल के साथ काम करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता कैसे दिखाते हैं। इसके लिए उनके सम्बंध का उद्देश्य क्या है।

6. निकटता का प्रयास- यह भावना अभिभावक में जागृत होनी चाहिए कि विद्यालय समुदाय का है शिक्षक तो सिर्फ इसके प्रहरी है, तथा शिक्षक के द्वारा विद्यालय को समुदाय के निकट ले जाने का प्रयास भी किया जाना चाहिए। विद्यालय अपनी प्रबंधक कमेटियों में समुदाय के सदस्यों को उचित स्थान प्रदान करे, एवं नियमित अंतराल पर विधिवत बैठक आयोजित करे। इससे समुदाय के सदस्यों का विद्यालय के प्रति उत्तरदायित्व बढ़ेगा एवं सहयोग विकसित होगा।

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