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आर्थिक पिछड़ेपन वाले देश में स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण बेइमानी है

मौनसून के आने से पहले जून के महीने में स्वास्थ्य से जुड़ी दो खबरें पढ़ने को मिली, जो देश में स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रति चिंता ज़ाहिर करती है।

पहली खबर में, बीते सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में मेडिकल कॉलेज की सुविधाओं को लेकर राज्य सरकार की खिंचाई की और कहा, “अधकचरे डॉक्टर मत बनाओ। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि मेडिकल कॉलेजों में अगर इंफ्रास्ट्रक्चर ही नहीं है, तो मरीजों का क्या होगा? उनका इंसानों की तरह इलाज करें, वो जानवर नहीं है।” साथ-ही-साथ कोर्ट ने यह भी कहा कि इन कॉलेजों से अधूरे डॉक्टर तैयार करना बंद करे।

दूसरी खबर में, स्वास्थ्य से जुड़े मसलों की विश्वप्रसिद्ध पत्रिका “लांसेट” ने दुनियाभर की सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर आंकलन पेश किया। जिसमें दुनिया के 195 देशों की सूची में भारत को 145वें स्थान पर रखा गया है।

रिपोर्ट यह भी खुलासा करती है कि हम अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका से भी पीछे के पायदान पर हैं।
माकूल चिकित्सा नहीं मिलने के कारण बीते दिनों गोरखपुर में ऑक्सीज़न सिलेडरों के अभाव में सैकड़ों बच्चों की जान गई है। इससे पहले भी भारत में स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर गंभीर चिंताए जताई जा चुकी हैं, पर सरकारे इस मसले पर गंभीर नज़र नहीं आती हैं।

किसी भी देश में स्वास्थ्य जनता का पहला बुनियादी अधिकार होता है, पर हम स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पादन यानी GDP का सबसे कम खर्च करने वाले देशों में शुमार हैं। आंकड़ों की माने तो, पिछले तीन वर्षों में देश की कुल GDP की सिर्फ 1.2 फीसदी से लेकर 1.5 फीसदी तक की राशि स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च हुई है। वही अमेरिका ने 2015-16 में 17.43 फीसदी, जापान ने 10.90 फीसदी, चीन ने 5.88 फीसदी और फ्रांस ने 11.67 खर्च किया है। वही दक्षेस देशों के आंकड़े खंगाले जाएं, तो अफगानिस्तान 8.2 फीसदी, मालदीव 13.7 फीसदी और नेपाल 5.8 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करता है।

इस समस्या का एक पहलू यह भी है कि देश में प्रति व्यक्ति डॉक्टरों की संख्या बहुत है, विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार प्रति हज़ार व्यक्ति एक डॉक्टर होना चाहिए, पर भारत में सात हज़ार व्यक्ति पर एक डॉक्टर है, देश को 14 लाख डाक्टरों की ज़रूरत है। ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों के कमी के कारण समस्या विकराल रूप में है, वहां ना ही डॉक्टर उपलब्ध हैं ना ही दवाइयां। इसलिए असंक्रामक रोगों से मरने वालों की ज़्यादा तादात गांवों में है।

स्वास्थ्य सेवाओं में अगर कोई अच्छी बात हुई है तो वह यह कि बड़ी तेज़ी से स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हुआ है। आज़ादी के समय देश में निजी अस्पतालों की संख्या 8 फीसद थी, जो अब बढ़कर 93 फीसद हो गई है, इसके साथ स्वास्थ्य सेवाओं में निजी निवेश 75 फीसद तक बढ़ गए हैं। निजी अस्पतालों का लक्ष्य मुनाफा बटोरना भर रह गया है, इसके एक नहीं कई वाक्या समय-समय पर सामने आते रहे हैं। यह समझ से परे बात लगती है कि जिस देश में अधिकांश लोग आर्थिक पिछड़ेपन के शिकार हैं वहां स्वास्थ्य सेवा निजी हाथों में सौंपना, कितना उचित कदम है।

स्वास्थ्य समस्या पर सरकार की अनिद्रा के स्थिति में देश के नागरिकों को ही स्वास्थ्य जीवनशैली अपनाने के लिए जागरूक करना बेहद ज़रूरी उपाए है। इस जटिल समस्या से निपटने के लिए जब सरकारों के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है तब अपेक्षित उपायों के प्रति तत्परता से ही हम स्वास्थ्य की समस्या को थोड़ा बहुत सुलझा सकते हैं।

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