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हिजाब पहनना सहजता है या धार्मिक कट्टरता?

अमूमन टीवी कम देखता हूं, पर जब कभी भी देखता हूं तो एक तरफ इन्टरटेमेंट चैनल और दूसरे तरह कोई न्यूज चैनल लगाकर रखता हूं। जब इन्टरटेमेंट चैनल पर प्रचार आने लगता है तब न्यूज चैनल देखने लगता हूं। आज सुबह सो कर उठा तो चाय और अख़बार के साथ टीवी ऑन कर दिया।

सोनी टीवी पर सलमान खान का शो “दस का दम” आ रहा था जिसमें हिजाब पहनी लड़की शमा परवीन काफी उत्साह से गेम खेल रही थी, प्रचार के लिए ब्रेक हुआ और न्यूज चैनल के देखने के लिए रिमोट दबाया, तो साउदी अरब की खबर जिसमें उस पहली महिला की तस्वीर आ रही थी जिसने साउदी अरब में पहली महिला ड्राइविंग लाइसेंस हासिल किया।

मेरे जेहन में यह बात हथौड़े की तरह चोट करने लगी कि एक ओर सऊदी अरब में बुर्के की आनिवार्यता खत्म करने की बात हो रही है दूसरी तरफ कई मुस्लिम समाजों में कट्टरवादी लिबास को नए सिरे से तरजीह भी मिल रही है। यह तरजीह इस हद तक है कि पिछले दिनों फैशन का बाइबल मानी जानेवाली ब्रिटिश पत्रिका VOGUE ने 102 वर्षों के इतिहास में पहली बार हिजाब पहनी हुई एक मॉडल हलीमा एडन की तस्वीर को अपने कवर पेज पर जगह दी थी।

फैशन के रूप में अचानक से हिजाब का चलन कैसे बढ़ रहा है? अगर कुछ फीसदी महिलाएं हिजाब का अनुसरण करती भी हैं तो क्या उसको किसी समाज का प्रतिनिधित्व के तौर पर पेश करना उचित है? क्या यह किसी एक समाज को दायरे में बंधा हुआ दिखाने की कोशिश नहीं है? यह भी हो सकता है कि हिजाब पहनना किसी मुस्लिम महिला के लिए सहजता का परिधान भर हो? फिर उन महिलाओं का क्या जिन्होंने अपने हिजाब को हवा में विरोध के प्रतीक में लहरा दिया था? यह भी सच है कि अगर मुस्लिम समाज हिजाब को अपना रहा है तो हिंदू समाज ने कौन से घूंघट की पर्देदारी को अलविदा कर दिया है।

साथ ही साथ यह भी सोच अपनी जगह बना रहा थी कि सानिया मिर्जा को टेनिस खेलने के दौरान उनके कपड़ों के लिए कितने फ़तवे जारी हुए थे और तमाम अखबारों और चैनलों में बहसों की झड़ी लग गई थी। मैं तय नहीं कर पा रहा था महिला सशक्तिकरण की मौजूदा परिभाषा के दायरे में सानिया मिर्जा को रखा जाए या सलमान के शो “दस के दम” में गेम खेलती हुई शमां परवीन को या साउदी अरब की उस पहली महिला को जिसने ड्राइविंग लाइसेंस हासिल किया है।

अजीब बात यह भी थी जिस देश में बुर्का और हिजाब महिलाओं के लिए सदियों से अनिवार्य रहा, उस देश में आज एक शहजादा कह रहे हैं कि इन चीजों की अनिवार्यता समाप्त कर देने का समय आ गया है। जहां सऊदी अरब जैसे कट्टरपंथी इस्लामी देश में सुधारों की रौशनी दिखने लगी है, वही अपने को “सेक्युलर” कहने वाले में देश में उल्टा हो रहा है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि हाल के दिनों में महिलाओं के परिधानों पर बेसिर-पैर के बयानों से उनके आत्मविश्वासी व्यक्तित्व की सुंदरता को तार-तार करने की कोशिशें बढ़ी हैं।

वास्तव में, जब से “इस्लाम खतरे है में है” और “हिंदू धर्म खतरे में है” जैसे नारों ने हमारे बीच में जगह बना ली है। खुद को अपने धर्म से जुड़ाव दिखाने की कोशिशों में लोगों ने अपने-अपने परिधानों में सामाजिक निगहबानी के दवाब में बदलाव किया है। क्योंकि भारत वही देश है जहां कश्मीर से कन्याकुमारी तक मुस्लिम महिलाएं उसी लिबास को प्राथमिकता देती थी जिसको हिंदू बहनें पहनती थी या जिसमें वह सहज महसूस करती थी। सिर से पैर तक पर्दादारी का रिवाज़ मुस्लिम समुदाय में वहाबी लोगों में अधिक था।

सिर्फ भारत ही नहीं कई देशों में अचानक से अपने पहनावे का मजहबीकरण का दौर बढ़ा है इसलिए भी तमाम धार्मिक प्रतिकों के इस्तेमाल पर रोक लगाने की कोशिशे भी मज़बूत हुई है जिससे असुरक्षा के कारण लोगों में धर्म के प्रति लगाव भी बढ़ा है। जिन देशों की महिलाएं हिजाब नहीं पहनती थी वहां भी हिजाब के प्रति आकर्षण बढ़ा है मसलन- इंडोनेशिया, मलेशिया जैसे देशों में महिलाएं अपना सिर तक नहीं ढकती थी आजकल हिजाब पहलने लगी हैं।

समस्या यह भी है कि हमारे देश में हिंदुत्व की कट्टरपंथी संस्थाएं के हौसलें भी मज़बूत और बुलंद हो रहे हैं। तभी तो रामनवमी के समय जोधपुर में हिंदुत्व से जुड़ी संस्था ने अपनी झांकी में उस व्यक्ति को बतौर हीरो पेश किया, जिसने अफराजुल नाम के बंगाली मज़दूर को सिर्फ इसलिए ज़िंदा जला दिया क्योंकि वह मुस्लिम था। इस समस्या का समाधान खोजना दिनोंदिन कठिन होता जा रहा है।

समझ में नहीं आ रहा है कि हम किस हवा में बहे जा रहे हैं, विरोध की हवा, राजनीति की हवा, संघर्षों की हवा, अफवाह की हवा इन सब हवाओं में इंसानियत और इंसानी हुकूक की आवाज़ सुनाई ही नहीं दे रही है।

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