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पर्दे से उतारी गयी व्यवस्था से टकराती “काला”

पहली बार पर्दे पर ब्राह्मणवादी व्यवस्था के चिथड़े उड़ाता दमदार बहुजन किरदार “काला” रियल लाइफ में भी अब उनकी नींदे उड़ाने लगा है।

यूं तो मैं कभी-कभी ही जा पाता हूं मूवी देखने, लेकिन इस बार अकेले ही मन बना लिया था। फिर वरिष्ठ साथी भंवर मेघवंशी के साथ आने से इस मूवी की सार्थकता और बढ़ गयी।

पिछले कुछ दिनों में शानदार रिव्यूज के साथ-साथ कई लोगो को हुई समस्या को पढ़ा तो याद आया कि हमने भी इसके लिए ऑनलाइन बुक करने की कोशिश की थी लेकिन हॉउसफुल बताया गया। बाद में जब काउंटर पर जाकर टिकट लेकर अंदर गए तो एक तिहाई सीटें खाली नज़र आयी।

खैर, इसे रोकने की कोशिश करने वाले यहीं नहीं रुके, लगभग सभी हिंदी भाषी बड़े शहरों में पर्दे से उतार दिया गया है इसे, इसके पीछे किसी साज़िश का मेरा शक तब यकीन में बदला जब मैंने इसकी रिलीज़ तारीख और बॉक्स आफिस पर कलेक्शन की तुलना समानांतर चल रही अन्य फिल्मों से की।

आंकड़ों पर नज़र डालेंगे तो पाएंगे कि यह फिल्म 7 जून को रिलीज़ हुई थी और महज़ सप्ताह भर में तकरीबन 140 करोड़ के बड़े आंकड़ें को छूने के बावजूद इसे उतार दिया गया। वहीं इससे पहले 1 जून को रिलीज़ हुई “वीरे दी वेडिंग” 78 करोड़ की कमाई कर पर्दे पर जमी हुई है। इससे भी पहले 25 मई को रिलीज़ हुई “परमाणु” महज 59 करोड़ की कमाई के बाद भी पर्दे पर है। यही नहीं “102 नॉट आउट” और “राज़ी” जैसी फिल्में 1 महीने से ज्यादा समय के बाद भी क्रमशः सिर्फ 80 करोड़ और 120 करोड़ की कमाई के बाद टिकी हुई हैं।

इस व्यवस्था से सवाल करता और व्यवस्था से भिड़ता “काला” उन्हें पसंद नहीं है, उन्हें “जय भीम” का नारा पसंद नहीं है, उन्हें थार जीप पर सवार मूंछों को ताव लगाता हुआ बहुजन पसंद नहीं है।

सदियों से फर्ज़ी कहानियों और फर्ज़ी नायकों को थोपने का काम इसलिए चल पा रहा है क्योंकि उसी फर्ज़ी नायक का सिनेमा जगत पर कब्ज़ा है।

जो “काला” को अपना नायक देखना चाहते हैं उनके पास अपना सिनेमाघर भी नहीं है। जब से भारतीय सिनेमा जगत की स्थापना हुई है तब से अभी तक हीरो सदा “सवर्ण पुरुष” ही रहा है। कभी ओबेराय, कभी सिंघानिया, कभी मुखर्जी, कभी बनर्जी तो कभी कपूर। इसके अलावा कभी किसी को नायक के रूप में दिखाया गया है तो टैक्सी वाले को, मज़दूर को, किसान को लेकिन “सरनेम” छुपाकर।

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