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झारखंड में ‘झोला छाप’ डॉक्टरों की मुश्किलें तेज़, सरकार ने किए रुख कड़े

झारखंड में अब झोला छाप डॉक्टरों के समक्ष संकट के काले बादल मंडराने लगे हैं। सरकार ने सूबे के सभी उपायुक्तों और पुलिस अधीक्षकों को निर्देश दिए हैं कि वे जल्द से जल्द फर्ज़ी डॉक्टरों की पहचान कर उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करें।

गौरतलब है कि राज्य सरकार की सख्ती के बाद इनके एसोसिएशन झारखंड ग्रामीण चिकित्सक मंच ने स्वास्थ्य मंत्री रामचंद्र चंद्रवंशी से ग्रामीण इलाकों में एमबीबीएस डॉक्टरों की कमी का बखान करते हुए कहा था कि ग्रामीण इलाकों में लोगों का इलाज़ करने के लिए बगैर डिग्री वाले डॉक्टरों की बड़ी अहम भूमिका होती है। उनका कहना था कि सरकार इन्हें प्रशिक्षण देकर उपयोग कर सकती है। मंच ने ऐसे डॉक्टरों को “झोला छाप” कहे जाने पर भी दुख प्रखट किया था।

मंत्री द्वारा उनके प्रशिक्षण की मांगो पर विचार करने के लिए जब विभाग को निर्देश दिया गया तब निदेशक प्रमुख-स्वास्थय सेवाएं डॉक्टर सुमंत मिश्रा ने कहा कि उन्हें प्रशिक्षण देकर उनके पेशे को मान्यता देना क्लीनिकल इस्टेब्लिशमेंट एक्ट के खिलाफ होगा। उक्त जानकारी मंत्री को भी दे दी गई है।

अब सवाल है कि सूबे के अधिकांश ज़िलों में चरमराई चिकित्सा व्यवस्था और मरीज़ दर के हिसाब से डॉक्टरों की कमी के बीच सरकार के पास विकल्प के तौर पर कौन सी नई रणनीति है? खासकर सूबे के दुमका ज़िले के सदर अस्पताल की बात की जाए तो आम तौर पर रोगियों की लंबी कतारों से निपटने के लिए महज़ एक या दो डॉक्टर ही उपलब्ध होते हैं। ग्रामीण इलाकों से लंबी दूरी तय कर और अपनी खेती व व्यवसाय छोड़कर आए औसत ग्रामीणों को आए दिन खाली हाथ ही लौटना पड़ता है। क्योंकि डॉक्टरों की कमी के कारण उन्हें दिन भर लंबी लाईनों में लगे रहना पड़ता है। यदि डॉक्टर साहब ने कोई जांच लिख दिया तब इन्हें विवश होकर घर जाना पड़ता है और फिर दूसरे दिन आकर इलाज़ की अगली प्रक्रिया को पूरी कर पाते हैं।

झोला छाप डॉक्टरों की पहचान कर उनकी मान्यता रद्द करने की सरकार की कवायद तो जायज़ हैं, लेकिन ग्रामीण इलाकों में जीवन यापन कर रहे लोगों को बेहतर चिकित्सा देने का दावा करने वाली सामुदायिक स्वास्थ केन्द्रों की उदासीनता भी सरकार के गले की घंटी बनी हुई है। इन केन्द्रों में प्राय: ताला जड़ा पाया जाता है। इस कारण मरीज़ शहरों का रूख करते हैं जहां लंबी कतारें उनके लिए फिर से मुसीबत का सबब बनती है।

उधर शहर के चकाचौंध से दूर बदहाली में गुजर-बसर कर रहे ग्रामीण अब भी झोला छाप डॉक्टरों को अपना मसीहा मान रहे हैं। उनके लिए बगैर डिग्री वाले ये झोला छाप डॉक्टर्स सब कुछ हैं। ज़िले के दिवानबाड़ी गांव (रानीबहाल पांचायत) के भैरव राम दास कहते हैं कि हमारे गांव में झोला छाप डॉक्टर ही हैं जिन्हें हम आधी रात को भी नॉक कर सकते हैं। कम पैसे में हमारा काम हो जाता है, फिर हम भला शहर क्यों जाएं।

झोला छाप डॉक्टर्स को लेकर ज़िले के मसलिया प्रखंड के राजकमल पंडित की माने तो ऐसे डॉक्टर्स न सिर्फ मरीज़ के जीवन के साथ खिलवाड़ करते हैं, बल्कि गरीबों को ठगने का भी काम करते हैं।

झोला छाप डॉक्टरों को लेकर दो भागों में बंटा समाज एक बेहतर विकल्प की तलाश में ज़रूर है, लेकिन आर्थिक तंगी इनकी राह में बाधा बन रही है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें ना चाह कर भी ऐसे फर्ज़ी डॉक्टर्स की शरण में जाना पड़ता है।

अब सवाल है कि फर्ज़ी डॉक्टरों पर नकेल कसने की सरकार की नीति यदि कारगर होती दिखाई पड़ती है तब ना सिर्फ लाखों झोला छाप डॉक्टर्स अपनी रोज़ी रोटी से हाथ धो बैठेंगे बल्कि ज़िले का सदर असपताल ही ग्रामीणों के लिए एक मात्र विकल्प होगा। ऐसे में झोला छाप डॉक्टरों पर निर्भर रहने वाली आम जनता को बड़े पैमाने पर नए डॉक्टर्स की नियुक्ति का इंतज़ार रहेगा।


फोटो प्रतीकात्मक है।

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