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महाराष्ट्र: रेलवे को मज़दूरों से काम नहीं रहा तो अब उजाड़ी जा रही उनकी बस्ती

केंद्र-राज्य की सरकारों ने इस वक्त सफाई की मुहिम छेड़ रखी है। उसी मुहिम के तहत शहरों को भी साफ किया जा रहा। यह सफाई कूड़े-कचरे के ढेर मात्र की कम, बल्कि इंसानों की ज़्यादा चल रही है। ऐसे इंसान जो झुग्गी-झोपड़ियों अथवा कहीं भी सड़क के किनारे गुज़र-बसर करते हैं। जो गरीब हैं, जिनके पास घर नहीं है। काम नहीं है, मेहनत-मज़दूरी करके किसी तरह अपना और बाल-बच्चों का पेट पालते हैं। दिल्ली हो या मुंबई कहीं भी ऐसी झोपड़ियां आसानी से देखी जा सकती हैं।

सवाल उठता है कि ये लोग आखिर कौन हैं? कहां से आते हैं? यह सवाल किसी भी व्यक्ति के दिमाग में आ सकता है।

संवेदनशील ढंग से अगर आप सोचेंगे तो शायद पता भी चल जाए कि ये वही लोग हैं, जो बाकी समाज के लिए घर की सफाई से लेकर सब्ज़ी पहुंचाने तक के सभी काम करते हैं। इनमें से ज़्यादातर स्वीपर से लेकर वॉचमैन तक कोई भी हो सकता है। जिन्हें आज इंसानों की गंदगी ठहराया जा रहा है।

झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले ये लोग ज़मीन व बेरोज़गारी के कारण शहरों की ओर पलायन करते हैं। लोगों के पास रोज़गार नहीं होगा, उनके पास ज़मीनें नहीं होंगी तो वे मजबूरन रोज़ी-रोटी की तलाश में कहीं भी जायेंगे, कुछ भी करेंगे और कहीं भी रहने को मजबूर होंगे। गांवों में सबके लिए काम तो बचा नहीं, शहर कहीं न कहीं कुछ तो काम दे ही देता है। हाल ही में रिलीज़ हुई ‘काला’ फिल्म में इसी मुद्दे को बहुत संजीदा तरीके से उठाने की कोशिश की गई है। पर हर बस्ती, झुग्गी में काला जैसा हीरो नहीं होता।

ऐसा ही महाराष्ट्र के भुसावल में हो रहा है। भुसावल की पहचान एक तो केले के उत्पादन से होती है, दूसरा रेलवे से। भुसावल का रेलवे यार्ड एशिया में सबसे बड़ा माना जाता है। भुसावल के आधे से अधिक लोग इसी यार्ड में काम करते हैं। आज जिनमें आधे से अधिक लोग ठेके पर मज़दूरी करते हैं और यही मज़दूर अपनी-अपनी झुग्गी-झोपड़ी बनाकर वहां रहते आए हैं।

अब यार्ड में निर्माण के बहुत सारे काम बंद कर दिए गए हैं। जो काम चल रहे हैं, वह भी ठेके पर प्राइवेट कंपनियां करा रही हैं। अब रेलवे को इन मज़दूरों की ज़रूरत नहीं रह गई है। उन्हीं मज़दूरों की ये तमाम बस्तियां यहां से बेरहमी से उजाड़ी जा रही हैं। इन परिवारों की तीन-चार पीढ़ियां यहां पर रहती आई हैं।

अमानवीयता का आलम तो यह है कि पहले इनकी बिजली काटी, फिर पानी तक बंद कर दिया। और अब सारी नालियां और सीवर लाइनें तक बंद कर दी गई हैं। रेलवे अपनी तमाम कॉलोनियों को तोड़कर वहां नया निर्माण करना चाहती है। वहां बसे लगभग हज़ारों परिवार अब बेघर होने की कगार पर हैं।

अलिशान बी, उम्र 45 वर्ष,

हमें बताती हैं कि हमारे अब्बा पहले यहां रहने आए। हम लोग यहीं पैदा हुए और अब बूढ़े भी हो गए। अब्बा तो बहुत पहले ही गुज़र गए थे। बड़ा परिवार था, इसलिए अब्बा हमलोगों के लिए एक छत तक न बनवा पाये। हम सबका पेट भरने में ही उनकी कमाई खत्म हो जाती थी। मैं अपनी बूढ़ी मां के साथ यहां रहती हूं। गरीबी के कारण मेरी पढ़ाई भी नहीं हो पाई। कहीं काम भी नहीं मिलता। फुटपाथ पर कुछ समान वगैरह बेचकर अपना काम चलाती हूं। कभी चप्पल, तो कभी बच्चों के खिलौने आदि बेचकर अपना और अपनी बूढ़ी बीमार मां का पेट भरती हूं। अपना दर्द बताते हुए वे कहती हैं, शरीर पर सफेद दाग होने की वजह से मेरी शादी नहीं हो पाई।

इतने सालों से यहां रह रहे हैं बमुश्किल सर ढकने को एक छत बना पाई हूं। अब उसे भी रेलवे के लोग तोड़ देंगे। अब हम कहां जाएं अपनी बूढ़ी मां को लेकर। हम तो कहते हैं कि रेलवे हमारे लिए कहीं ज़मीन दे, अगर वो भी नहीं दे सकती तो कहीं से हमें लोन दिलवाए। या वो खुद पैसा दे ताकि हमलोग कहीं एक चारपाई भर की ज़मीन लेकर अपना आशियाना बसा सकें।

शकुंतला बस्ते, उम्र 60 वर्ष।

शकुंतला अपने घर में अकेली महिला है। शरीर जर्जर हो चुका है। न बच्चे हैं, न पति, पति बहुत पहले ही उन्हें छोड़ कहीं चले गए। घर जैसा घर तो नहीं, बस सिर छुपाने को ज़मीन मात्र है। इनकी भी तीन पीढ़ियां यहीं गुज़री हैं। कोई काम नहीं है। घरों में बर्तन धोकर अपना गुज़ारा करती हैं। जमा पूंजी के नाम पर बस यही एक टूटी- फूटी झोपड़ी मात्र है। वह अपने बुढ़ापे के आखिरी दिनों में कहां जाए? वह अपने पुराने दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि 70 के आसपास यहां आए थे और यहीं के रह गए। जब तक हाथ- पांव में दम था, मज़दूरी करके अपना पेट पाला। अब बुढ़ापे में यह विपदा आन पड़ी। कहां जायेंगे? क्या करेंगे? जब तक हमलोगों की यहां रेलवे वालों को ज़रूरत थी तब तक तो कुछ नहीं कहा, लेकिन आज वह अपनी ज़मीन खाली कराना चाहता है।

शांता बाई, उम्र 80 वर्ष।

मनमाड से यहां आई थीं। वो बताती हैं कि वहां पर हमारे पास ज़मीन नहीं थी, खेत भी नहीं थे। मज़दूरी करने यहां आएं। कुछ काम हम लोगों को यहां मिल जाता था। बच्चे बड़े हो गए, शादियां कर अलग हो गए। मैं अकेली जान बची हूं। सरकारी महकमे के लोग हर दूसरे-तीसरे दिन यहां आकर घर खाली करने को कहते हैं। पानी-बिजली सब काट दिया। नालियां तक जाम कर दी गई हमारी। भगवान भी मुझे उठा नहीं लेता। जाने किस बात का बदला ले रहा है।

अब यहीं पड़ोसी हमारे सब कुछ हैं। अलिशान बी हमेशा मेरी मदद करती आई हैं। यहां से कहां जाएं? कौन देखेगा मुझे? मौहल्ले के बच्चों के साथ अपना दिन काट लेती हूं। यहां से जाने की बात सोचकर ही दिल घबरा जाता है। जाने क्या होगा? यहां के आमदार, खासदार सबसे हमलोग मिले, लेकिन ये सब भी वोट लेने के वक्त ही दिखाई देते हैं। अब यहां कोई दिखाई नहीं देता। ना ही हमारे मसले पर कोई खड़ा होता दिखाई दे रहा है।

शेख फिरोज़, उषा बाई, हालिम सिकंदर, देवीदास भगवान दास नागा, हिरन्ना येरल्लो, ओंकार शंकर वांगर, लता बाई गोपालराव जादव, खैरुन निशा, सुनीता, विद्या आदि हज़ारों की संख्या में ऐसे लोग हैं जिनके पास जीने-रहने का इसके सिवा कोई ज़रिया नहीं है। ज़मीन नहीं, ठीक से रोज़गार नहीं। बस यही एक ठिकाना है जो अब उजड़ने वाला है। भुसावल के ऐसे ही लगभग 5000 परिवार उजड़ने वाले हैं, जिसमें चांदमारी चॉल, हद्दीवाली चॉल, आगवली चॉल, लिंपूस क़ल्ब, चालीस बांग्ला चॉल। इन सारी चालों में परिवारों की संख्या लगभग 5000 के ऊपर होगी।

NARESH GAUTAM & SANDESH UMALE

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