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“यह मोदी सरकार की अघोषित इमरजेंसी का दौर है, यहां सरकार की आलोचना गुनाह है”

जब से होश संभाला है तबसे सुन रहा हूं कि देश में एक बार इमरजेंसी लगायी गयी थी और उस दौरान देश की सभी संवैधानिक संस्था को कुचल दिया गया था। आज हमारे देश में लगायी गयी इमरजेंसी को 43 साल हो गए हैं।

इमरजेंसी के 43 साल होने पर अरुण जेटली ने अपने ब्लॉग में इमरजेंसी की कड़ी निंदा भी की, लेकिन वो आज के हालात का ज़िक्र करना जैसे भूल ही गए। आज के हालात इमरजेंसी से कम नहीं है।

पिछले 5 सालों से हमारे देश में इस बात की चर्चा हो रही है कि हमारा देश अघोषित इमरजेंसी से गुज़र रहा है। इस चर्चा की शुरुआत साहित्यकारों, लेखकों और कलाकारों के सम्मान वापसी से शुरू हुई थी लेकिन अब यह बात सिर्फ सम्मान वापसी तक सीमित नहीं है।

अब न्यायपालिका के कामकाज में भी सरकार का हस्तक्षेप, सरकार के खिलाफ लिखने और बोलने वालों की हत्या, बोलने की आज़ादी पर पाबन्दी और मीडिया की मौजूदा हालात इस चर्चा को और मज़बूत करते हैं।

अगर इस चर्चा का विश्लेषण किया जाये और 1975 की  इमरजेंसी और आज की अघोषित इमरजेंसी में समानताएं निकाली जाये तो 3 बहुत अहम समानताएं आसानी से मिल सकती हैं और एक असामनता भी है तब की और अब की इमरजेंसी में। यह असमानता आज की इमरजेंसी को और खतरनाक बनाती है।

तब की इमरजेंसी की तरह आज भी न्यायपालिका के कामकाज में सरकार का हस्तक्षेप किसी से छुपा नहीं है। नौबत यहां तक आ गयी कि देश के 4 वरिष्ठ न्यायाधीशों को मीडिया के माध्यम से अपनी बात रखनी पड़ी। वरिष्ठ न्यायाधीश पत्र लिखकर सरकार द्वारा कॉलेजियम को दरकिनार करने की बात बार-बार कह रहे हैं और जो इस देश के न्यायाधीश जस्टिस लोया के साथ हुआ है उसको लिखने के लिए लेखक के पास शब्द नहीं है।

तब की इमरजेंसी की तरह आज भी सरकार का मीडिया पर पूरा अंकुश है। आज की मीडिया के बारे में इतना ही कह सकते हैं कि मीडिया सरकार के प्रवक्ताओं का काम कर रही है और अगर कोई मीडिया हाउस सरकार की आलोचना करे तो उसको NDTV की तरह बंद करने की साज़िश शुरू हो जाती है। मीडिया पर अंकुश की चर्चा को बल हाल में ही आज तक न्यूज़ चैनल से निकले गए पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी के बयान से मिलता है, जिसमे वो साफ कहते हैं

देश में पत्रकारिता के हालात काफी बदल गए हैं। अब एडिटर को पता नहीं होता कि कब फोन आ जाए। कभी पीएमओ तो कभी किसी मंत्रालय से सीधे फोन आता है। इन फोन में समाचार को लेकर निर्देश होते हैं।

मीडिया सरकार की घोषणाएं बढ़ा-चढ़ा कर दिखाती हैं, लेकिन मीडिया जैसे भूल ही गयी है कि सरकार घोषणाओं का आकलन और आलोचना भी उसका धर्म है।

आज मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति 1975 के इमरजेंसी से भी बदतर है। लोग खान-पान की चीज़ों के लिए किसी की भी हत्या कर देते हैं मॉब लिंचिंग की घटनाएं हमारे संविधान और लोकतंत्र को जैसे खोखला कर रही है और अगर कोई लेखक सरकार के खिलाफ कुछ लिखे तो उन्हें दाभोलकर, पंसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की तरह हमेशा के लिए चुप कर दिया जाता है। लिखने, बोलने और विरोध करने की आज़ादी अब सिर्फ सत्ता पक्ष तक सीमित है।

जो असमानता आज की इमरजेंसी को और खतरनाक बनाती है वो है आज का एक बड़ा समाज का तबका जो इस  इमरजेंसी का समर्थन कर रहा है। जबकि 1975 में ऐसा नहीं था देश की जनता, मीडिया से लेकर नेताओं सबने इमरजेंसी की निंदा की थी। लेकिन आज ऐसा नहीं है। चाहे मीडिया हो या राजनैतिक गलियारे सब अपने-अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए इस लोकतंत्र और देश को नुकसान पंहुचा रहे हैं।

आज हर उस इंसान के लिए अघोषित इमरजेंसी है जो सरकार की आलोचना करे और अपने हक के लिए आवाज़ उठाये। जिसको भी लगता है कि देश अघोषित इमरजेंसी से नहीं गुज़र रहा है, वो एक बार ज़रूर सरकार के खिलाफ किसी भी प्लैटफॉर्म पर आवाज़ उठा कर देखे उसको एहसास होगा कि इमरजेंसी है या नहीं।

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