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इस शख्स ने गांव की लड़कियों को बनाया इंटरनैशनल फुटबॉल प्लेयर

इन दिनों पूरी दुनिया एक ओर जहां ‘फुटबॉल का महाकुंभ’ कहे जानेवाले फीफा वर्ल्ड कप की खुमारी से सराबोर है, वहीं झारखंड के हुंडरु पंचायत की कुछ बेटियां इसी फुटबॉल के माध्यम से पूरी दुनिया में अपनी पहचान बनाने के लिए उड़ान भर रही हैं। जिन बेटियों ने कभी अपने गांव से बाहर कदम नहीं रखा था, आज वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी भागीदारी दर्ज कराने रूस और इंग्लैंड जा रही हैं।

फीफा द्वारा आयोजित प्रत्येक चार साल पर आयोजित फुटबॉल वर्ल्ड कप के समानांतर एक फुटबॉल फेस्टिवल भी मनाया जाता है, जिसमें विभिन्न देशों से वैसे गैर-सरकारी अथवा स्वैच्छिक सस्थाओं को आमंत्रित किया जाता है, जो इस खेल को अपने स्तर से प्रश्रय देने का काम कर रहे हैं। इस बार भी कुल 48 ऐसे एनजीओ को रूस में आयोजित मैच के लिए आमंत्रित किया गया है। इसका थीम है, ‘Football for Hope’ ।

अब तक भारत की ओर इस प्रतिस्पर्धा में लड़के ही शामिल होते रहे हैं। इस बार पहली दफा 6 लड़कियां भी इसमें शामिल होंगी। इनमें से चार लड़कियां मुंबई से जबकि दो झारखंड से हैं।

झारखंड की राजधानी रांची के कांके प्रखंड के हुंडरु पंचायत की करीब 400 बेटियां समाज के ऐसे तबकों और परिवारों से आती हैं, जहां दो वक्त की रोटी जुगाड़ करना भी मुश्किल है। इसके बावजूद ये बेटियां अपनी हिम्मत, लगन और हौसले से अपनी राहों की तमाम बाधाओं को दूर करके अपनी एक अलग पहचान बनाने में कामयाब रही हैं।

ज़रा सोचिए, जो लड़कियां कभी अपने ज़िले से तो क्या, अपने गांव से भी बाहर नहीं निकली हों, जिन्होंने कभी ट्रेन भी ना देखी हो, वे आज हवाई जहाज में बैठकर रूस और इंग्लैंड जा रही हैं और उनकी ज़िंदगी में इस बदलाव की वजह बना है, फुटबॉल।

खूशबू बनकर गुलों से उड़ा करती हैं,

धुआं बनकर पर्वतों से उड़ा करती हैं,

ये दुनिया खाक इन्हें उड़ने से रोकेंगी,

ये बेटियां अपने परों से नहीं,

हौसलों से उड़ा करती हैं।

जी हां, और यह सब मुमकिन हुआ है एक इंसान के जूनन और जज्बे की वजह से। उस इंसान का नाम है, अशोक राठौड़। मुंबई निवासी अशोक बताते हैं, “मेरा पूरा बचपन मुंबई के स्लम बस्ती में बीता। वहां रहनेवाले ज़्यादातर बच्चों के मां-बाप मछुआरे या दैनिक मज़दूर थे। वे रोज़ सुबह काम पर चले जाते थे। उनकी अनुपस्थिति में उनके बच्चे पूरे दिन मटरगश्ती करते, जुआ खेलते या नशा करते थे। मेरे पिता को यह सब पसंद नहीं था। उन्होंने कोलावा म्युनिसिपल स्कूल में मेरा एडमिशन करवा दिया, जबकि मेरे आस-पड़ोस में रहनेवाले मेरे उम्र के ज़्यादातर बच्चे अपने पुश्तैनी धंधे या छोटे-मोटे काम करके ही गुज़ारा करने लगे।

उस वक्त मुझे कभी-कभी बड़ा अफसोस होता था कि वे सब मेरी ही उम्र के हैं और कमाई भी करने लग गये। मैं पिछड़ गया, लेकिन आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं, तो मैं उनसे कहीं आगे निकल चुका हूं। मेरे हमउम्र लगभग सारे दोस्तों की शादी हो गयी। आज के समय में उनके दो-तीन बच्चे हैं। वे सभी मुफलिसी की हालत में जी रहे हैं। मंहगाई बढ़ने की वजह से वे जैसे-तैसे करके अपना गुज़ारा कर रहे हैं। आज मैं मानता हूं कि शिक्षा ने मेरी सोच और मेरी ज़िंदगी-दोनों बदल दी।

तब मैंने अपने आसपास रहनेवाले बच्चों की ज़िंदगी संवारने की सोची, पर सवाल था कैसे ? अगर मैं सीधे उन्हें पढ़ने के लिए तो कह नहीं सकता था, तो पहले मैंने उन्हें पहले फुटबॉल से जोड़ा। फिर उन्हें एजुकेशनल पर्सनैलिटी डेवलपमेंट ट्रेनिंग दी।”

ऑस्कर फाउंडेशन की स्थापना

अशोक बताते हैं कि करीब चार साल तक मैं यूं ही बच्चों को ट्रेनिंग देता रहा। चाहता था कि अपना एक ट्रेनिंग इंस्टिच्यूट खोलूं, जहां इन बच्चों को एक ही छत के नीचे स्पोर्ट्स और एजुकेशन दोनों ही ट्रेनिंग दे सकूं, पर इसके लिए फंड की ज़रूरत थी और हमारी कोई रजिस्टर्ड संस्था नहीं थी। इस वजह से कई लोग मदद करने से इंकार कर देते थे। तब वर्ष 2010 में अपने दोस्त सूरज पात्रों के साथ मिलकर मैंने ऑस्कर फाउंडेशन के गठन की नींव रखी। सूरज भी झारखंड का ही रहनेवाला है, पर पिछले कई सालों से मुंबई आकर बस गया है। उसके ही कहने पर मैंने झारखंड के पिछड़े इलाकों में बच्चों को फुटबॉल की ट्रेनिंग देनी शुरू की। फिलहाल ऑस्कर फाउंडेशन देश के चार प्रमुख शहरों- मुंबई, दिल्ली, झारखंड और कर्नाटक के विभिन्न इलाकों में रहनेवाले गरीब बच्चों को फुटबॉल की ट्रेनिंग के माध्यम से उनकी ज़िंदगी संवारने का काम कर रहा है। झारखंड में इसके संचालन की ज़िम्मेदारी आनंद टोप्पो और हीरालाल महतो संभाल रहे हैं।

मुंबई के ऑस्कर फाउंडेशन की ओर से दी जानेवाली फुटबॉल ट्रेनिंग ने झारखंड के नितांत पिछड़े माने जानेवाले आठ प्रखंडों के करीब 45 गांवों के करीब 700 बच्चों की तकदीर बदल दी है। आज फुटबॉल इनकी रगों में दौड़ता है। इस खेल ने ना केवल उन्हें अपने शारीरिक और मानसिक कौशल के प्रदर्शन का मौका दिया है, बल्कि उनकी आंखों में ‘अपनी अलग पहचान’ बनाने का सपना भी दिया है। इस फुटबॉल ने ज़मीन से जुड़ी इन बेटियों में इतना आत्म-विश्वास भर दिया है कि वे आज आकाश छूने का माद्दा रखती हैं। अशोक भी मानते हैं, ”मंजिलें उन्हीं को मिलती है,  जिनके सपनों में जान होती है, पंखों से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है।”

बदल दी अपने गांवों की तकदीर

बदलाव के लिए हमेशा क्रांति की ज़रूरत नहीं होती। इसके लिए बस दिल में जज्बा और इरादों में मज़बूती होनी चाहिए। ये दोनों चीज़ें जिस भी इंसान में हैं, उसे फिर अपने मंजिलों को पाने से कोई नहीं रोक सकता। इन बेटियों ने अपने मज़बूत इरादों से आज केवल अपनी ही नहीं, अपने गांवों की भी तकदीर बदल कर रख दी है।

इनमें से लगभग सभी लड़कियों की कहानी एक सी है। आज से तीन-चार साल पहले ये लड़कियां जब फाउंडेशन से जुड़ीं, तो शुरुआत में इन सबके परिवारवालों ने भी इनका साथ नहीं दिया। शीतल बताती हैं,

सबलोग मानते थे कि फुटबॉल लड़कों का खेल है। हम लड़कियां नहीं खेल सकती, इसलिए जब हमने इस खेल में अपनी किस्मत आज़माने का निर्णय लिया, तो हर किसी ने हमारी खिल्ली उड़ायी।

सोनी बताती हैं,

सब कहते थे कितना भी मेहनत कर लो, लड़कों की तरह थोड़े न खेल पाओगी।

पुष्पा कहती हैं,

चूंकि मेरा कोई भाई नहीं है, इसलिए मां ने हमेशा हम बहनों के सपनों को फुल सपोर्ट किया। इस वजह से पापा कई बार मां पर हाथ भी उठा देते थे, क्योंकि उन्हें हमें इतनी छूट देना मंज़ूर नहीं था।

जब ये लड़कियां पहली बार टी-शर्ट और निकर पहन कर फुटबॉल खेलने निकलीं, तो हर किसी ने उनका मज़ाक उड़ाया। नेहा कहती हैं,

गांव वाले हमारे पैंरेट्स को कहते थे कि तुम्हारी बेटी कैसी बेशर्म हो गयी है। छोटे-छोटे कपड़े पहन कर लड़कों के साथ उछलती-कूदती रहती है।

प्रियंका बताती हैं,

पहले सब विरोध करते थे। टी-शर्ट और निकर पहनती थी, तो सबको लगता था कि लड़की बिगड़ गयी है। शुरुआत में उसके ऊपर से स्कर्ट या सलवार-कमीज़ पहन लेती थी और फिर ग्राउंड पर जाने से पहले उतार देती थी। धीरे-धीरे जब इस खेल में हमारा परफॉर्मेंस अच्छा होने लगा और हमारी खबरें टीवी-अखबारों में आने लगीं, तो घरवालों को लगा कि हम कुछ अच्छा कर रहे हैं।

देश के बाद अब विदेश में धूम मचाने की है तैयारी

इन लड़कियों में से केवल दो को छोड़कर बाकी अन्य झारखंड में ही नहीं, बल्कि देश के लगभग सभी प्रमुख शहरों (जैसे- दिल्ली, मुंबई, यूपी, नागपुर, कोलकाता, पंजाब, गुजरात, उड़ीसा, अंडमान एवं निकोबार आदि) में अपने किक का धमाल मचा चुकी हैं और कई पुरस्कार भी जीत चुकी हैं। अंशु कच्छप बताती हैं,

जब हमारी टीम अंडमान-निकोबार में मैच खेलने गयी, तो हम पहली बार पानी के जहाज में बैठी थीं। लगातार पांच दिनों तक जहाज पर रहना और समुद्री दुनिया से रूबरू होने का एक अलग ही मज़ा था।

सोनी कहती हैं,

अब तक हमारी दुनिया केवल घर से स्कूल और स्कूल से घर तक ही सीमित थी, फाउंडेशन से जुड़ने के बाद हमारा परिचय एक नयी दुनिया से हुआ, जिसमें लड़का-लड़की सब बराबर है। उनमें कोई भेदभाव नहीं है। सबका बस एक ही लक्ष्य है, खुद को बेहतरीन फुटबॉल प्लेयर के तौर पर स्थापित करना।

टिंकी और आरती ने बताया,

हमें अब तक रांची से बाहर जाकर खेलने का मौका नहीं मिला था। इस साल फरवरी में दिल्ली में फुटबॉल की ट्रेनिंग लेने पहली बार अपने राज्य से बाहर गयी थीं। अब अक्टूबर में हममें से सात लड़कियां सीधे इंग्लैंड जाकर खेलेंगी। फिलहाल शीतल और सोनी रूस गयी हैं।

फुटबॉल ने ना केवल इन लड़कियों की ज़िंदगी बदली है, बल्कि इनमें से हर एक की आंखों को एक अनूठा सपना भी दिया है। शीतल बताती हैं, “पहले हमारे गांव में 14-15 साल की होते-होते ज़्यादातर लड़कियों की शादी हो जाती थी, लेकिन फाउंडेशन से जुड़ने के बाद हम भी इससे इतर नये सपने देखने लगे हैं। आज हममें से कोई लड़की पढ़-लिख कर डॉक्टर बनना चाहती है, तो कोई आइएएस ऑफिसर। किसी की आंखों में नेशनल फुटबॉल प्लेयर बनने का सपना है, तो कोई फुटबॉल कोच बनना चाहती है। इसके अलावा, हम सब चाहती हैं कि आनेवाले कल में हम अपने जैसे वंचित वर्ग के अधिक-से-अधिक बच्चों की ज़िंदगी संवार सकें, जिस तरह से फाउंडेशन से जुड़े सर और मैम ने हमारी ज़िंदगी संवारी है।” इन लड़कियों के हौसले और जज्बे को देखकर दिल से बस एक ही आवाज़ उठती है,

कायम रख तू हौसला वो मंज़र भी आयेगा,

प्यासे के पास चल के समंदर भी आयेगा,

थक कर ना बैठ ऐ मंज़िल के मुसाफिर,

मंज़िल भी मिलेगी और मिलने का मजा भी आयेगा।

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