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बाज़ारवाद और पितृसत्ता में कैद महिला परिधान और कोयतुरियन पहनावे का महत्व

आधुनिक युग विज्ञान, फैशन, इलेक्ट्रॉनिक गजेट्स और विज्ञापन को जीने का युग है, वैज्ञानिक सोच ना हो तो भी चलता है। सौंदर्यीकरण का बाज़ार इतना गर्म हो गया है कि स्त्रियां कब इसके गिरफ्त में आ गईं हैं उन्हें पता ही नहीं चल पा रहा है। ब्रा की अनिवार्यता से लेकर ब्लीचिंग तक यह सब सुंदरता के नाम पर हो रहा हैरासमेंट है।

लोगों की मानसिकता इस कदर विकृत हो गयी है कि अगर कहीं किसी युवती या स्त्री के ब्रा का स्ट्रिप का उभार दिख जाए तो नज़रें कपड़ों के नीचे तक टिक जाती हैं। वहीं अगर ब्रा स्किन कलर ना होकर कलर्ड हो तो द्विभाषी गंदे कमेंटबाजी से भी बाज नहीं आते हैं।

हाल ही में दिल्ली के एक प्राइवेट स्कूल में छात्राओं को स्किन कलर की ब्रा पहनकर आने का फरमान सुनाया गया वजह की लड़के विचलित हो जाते हैं। जब स्कूलों में यौन और नैतिक शिक्षा देने की बजाय इस तरह के तुगलकी फरमान सुनाई जाने लगे, जिसकी वजह लड़कों का विचलित होना बताई जाने लगे तब समझ जाइये की इस देश का मर्दवादी समाज स्त्रियों को क्या समझता है।

आखिर ब्रा स्किन कलर का ही क्यों पहनें, और तो और ब्रा पहनें ही क्यों? कोई कैसे डिसाइड कर सकता है कि स्त्रियां क्या पहनें और क्या ना पहनें।

आमतौर पर धारणा ये है कि ब्रा पहनने से ब्रेस्ट सुडौल और टाइट रहते हैं, जो अधिक आकर्षक दिखाई देते हैं। टीवी, विज्ञापनों  से लेकर फिल्मों तक में ये धारणाएं थोक के भाव परोसी जा रही हैं और परोसी जा रही है इनसे जुड़ी शर्म और हया क्योंकि इन्हें इज्ज़त और मर्यादा का विषय बना दिया गया है, और यही हैरासमेंट है। इस संबंध में किसी पुरुष से बात ना करना, छुपा कर रखना, और अन्य कपड़ो  के नीचे छिपाकर सुखाना आदि सब हैरासमेंट की पराकाष्ठा है।

इनसे सबसे अधिक हानि स्त्रियों को ही होती है, इससे ब्लड सर्कुलेशन में बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है, ब्रेस्ट में गांठ पड़ने की संभावना बढ़ जाती है और हैरासमेंट होता है सो अलग। पुरुषों ने जैसा चाहा वैसा स्त्रियों का उपभोग किया है और स्त्रियां पुरुषों के इस जाल को काट देने की बजाय खुद फंसती हुई नज़र आ रही हैं।

किसी भी स्त्री के हाथ, पैर, अंडर आर्म और जननांग में बाल होना प्राकृतिक है, जिसे सुंदरता के नाम पर अप्राकृतिक तरीके से ब्लीच करवाने का चलन भी बढ़ा है जिसका साइड इफेक्ट स्किन डिसीज़ और स्किन का असमय ढीलापन के रूप में देखा गया है। इन कामों के लिए घर परिवार के लोग ज़्यादा फोर्स करते हैं बाहरी वातावरण तो बना ही दिया गया है इन कामों के अनुकूल, जो नहीं करवाएगा उसे मानसिक यातनाएं झेलनी पड़ेगी, बेवजह की शर्मिंदगी उठानी पड़ेंगी।

मार्केट में स्त्रियों को उपभोग की वस्तु बनाने के एक से एक शर्मनाक हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, वह चाहे परफ्यूम का विज्ञापन हो, किसी शैम्पू का, किसी फेस क्रीम का, किसी बाइक का या किसी बॉडी टोनर का।

लड़के ने परफ्यूम लगाया लड़कियां उस पर आसक्त हों चिपकने लगती हैं। जब आईपीएल का मैच चल रहा था तब परफ्यूम का एक ऐड आता था जिसमें लड़की सूंघते हुए बोलती है “वाह यार तेरा परफ्यूम तो बोलता है” उसका जो तरीका होता है उसे देखकर समझने वाले का माथा शर्म से झुक जाए। इस तरह पूरे बाज़ार ने स्त्रियों का बाज़ारीकरण कर दिया है। जिससे कई घातक बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं जिनमें से सबसे खतरनाक है ब्रेस्ट(स्तन) कैंसर।

हमारे देश में एक ऐसा समुदाय जीवित है जिनकी लाइफस्टाइल नैचुरल और साइंटिफिक है। आज की आधुनिक युवा पीढ़ी को इस समुदाय के बारे में जानना चाहिए और उनके लाइफस्टाइल को अमल में लाना चाहिए।

ये वह समुदाय है जो मातृशक्ति प्रधान है, जिनमें लिंगानुपात(sex ratio) बहुत बेहतर है, भ्रूण हत्या का रिकॉर्ड शून्य है, दहेज प्रथा नहीं है, कन्यादान की अपेक्षा कुलवधू की प्रथा है, प्रथम बार जब लड़की को पीरियड आता है तो उसे शक्तिरूप में पूजकर सम्मान देने की परंपरा है, छेड़छाड़, रेप, बलात्कार का रिकॉर्ड नगण्य है, ऐसे कई अनुपम और प्राकृतिक खासियतों से परिपूर्ण समुदाय है देशज(Indigenous peoples) समुदाय दूसरे शब्दों में ट्राइबल कम्युनिटी ऑफ इंडिया।

इन्हें जंगली असभ्य, अनपढ़ समझने की कोशिश भी नहीं करना क्योंकि इनसे अधिक सभ्य और सुसंस्कृत और कोई नहीं हैं, क्योंकि इन्होंने गंदगी नहीं फैलाई, प्रदूषण नहीं फैलाये, पर्यावरण को कोई नुकसान नही पहुंचाए, ग्लोबल वॉर्मिंग को बढ़ाने में इनका कोई हाथ नहीं, क्लाइमेट चेंज में इनका कोई हाथ नहीं, ओज़ोन लेयर के पतले होने में इनका कोई हाथ नही बल्कि इन सब में पढ़े लिखे, तथाकथित सभ्य, संभ्रांत और विज्ञान पढ़ने वाले आधुनिक प्रवृत्ति के लोगों का हाथ है।

देशज/कोयतुर समुदाय में महिलाओं के पहनावा का तकनीक बेहद सादा, सुंदर और शरीर की क्रियाओं के अनुकूल है। एक बाली(16 हाथ साड़ी या लुगड़ा या धोती) को इस तकनीक से पहना जाता है कि वह दौड़ लगाने, पर्वत पहाड़ चढ़ने से भी ना छूटे और उसका एक छोर जिसे अलगा कहते हैं इस तरह से लपेटकर बांधा जाता है कि ब्रेस्ट ढक जाएं। इस तरह वे ब्रा जैसी नाचीज़ के कैद से आज़ाद होती हैं और रक्त का परिसंचालन बना रहता है। इनमें ब्रेस्ट कैंसर, स्किन डिसीज़, या स्किन का ढीलापन जैसी समस्याएं ज़्यादा देखी नहीं गयी हैं।

आधुनिकता से देशज कोयतुर समुदाय भी अछूता नहीं रहा है, अब वे ब्लाउज़ पहनने लगीं हैं पर ब्रा उनकी पहुंच से दूर है और जो आदिवासी शहर में बस गए हैं वे इन वस्त्रों का उपयोग करने लगे हैं और रहन सहन में परिवर्तन आया है। अधिकांश जनसंख्या गांवों कस्बों में ही निवास करती है जो उनको प्राकृतिक जड़ों से जड़ता के साथ जोड़े हुए है, जिनका शहरी आदिवासियों से उतना ही जुड़ाव है जितना पहले था। सब साथ मिलकर पृथ्वी पर जीवन को बचाने हेतु जल, जंगल, ज़मीन को संरक्षित रखने के लिए आंदोलनरत हैं।

देशज कोयतुरों का नार(ग्राम) इकोनॉमिक सिस्टम, उनका औषधीय ज्ञान, मौसमी ज्ञान, इको फ्रेंडली जीवन शैली को आधुनिक जीवन शैली के साथ सामंजस्य करके पृथ्वी पर जीवन को बचाया जा सकता है। इन ट्राइबल्स( आदिवासियों) से स्त्रियों का सम्मान कैसे किया जाता है सीखा जा सकता है, सीमित साधनो संसाधनोंं से कैसे खुश रहा जाता है सीखा जा सकता है, नैसर्गिक खूबसूरती क्या होती है जाना जा सकता है।

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