पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के संघ के कार्यक्रम में जाने को लेकर पिछले कई दिनों से घमासान मचा था। यह हलचल प्रणब मुखर्जी के संघ के निमंत्रण को स्वीकारने के बाद शुरू हुआ। जिसने 10 जनपद रोड को भूल प्रणब दा के नागपुर के रास्ते निकल पड़ने की अटकलों का बाज़ार गरमा दिया।
खबर बहते हुए निकली कि पूर्व राष्ट्रपति एवं संप्रग सरकार में वित्त मंत्री रहे प्रणब दा की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के टिकट पर लड़ेंगी, वह वर्तमान में दिल्ली कॉंग्रेस की प्रवक्ता पद पर पदासीन हैं। इस खबर का उद्गम स्थान भाजपा हेड ऑफिस ही था। लेकिन बात लंबा खिंचता देख, शर्मिष्ठा ने कॉंग्रेस के प्रति अपनी वफादारी को मीडिया के समक्ष तीखे तेवर के साथ रखा और बयान जारी कर कहा, “कांग्रेस के अलावा एक ही पर्याय है कि मैं राजनीति से सन्यास ले लूं।”
राग लपेट का खेल चलता रहा लेकिन आखिरकार वह क्षण आ ही गया जब प्रणब मुखर्जी नागपुर पहुंचे और सर संघचालक मोहन भागवत के साथ मंच साझा किया, इस पूरे वाक्ये को तमाम मीडिया चैनल्स टीवी के ज़रिए लोगों तक पहुंचा रहे थे और प्रिंट एवं डीजिटल मीडिया भी तस्वीरों के ज़रिए सारे घटनाक्रम का लाइव अपडेट दे रहे थे।
परंतु जैसे ही पूर्व राष्ट्रपति और ठाटी कॉंग्रेसी प्रणब मुखर्जी ने स्वयंसेवकों को संबोधित करना शुरू किया, वैसे ही तस्वीर साफ होने लगी। जिसपर तमाम लोगों ने कई दिनों से पलीता लगाने की कोशिश की थी । प्रणब दा शुरू हुए राष्ट्र की परिकल्पाना से जिसे उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू के सपनों के भारत से जोड़ा। अखंडता का ज़िक्र करते हुए उन्होंने लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल को स्मरणित किया। संविधान के रचयीता डॉ.बाबासाहेब भीमराव अंबेडकार के कार्यों से सभी संघियों को अवगत कराया। बाल गंगाधर तिलक और अनेकों महान शख्सियतों को उन्होंने याद करते हुए देशभक्ती, राष्ट्रवादिता का पाठ पढ़ाया।।
संघ के गढ़ नागपुर में उपस्थित होकर रेशमबाग की भरी मैदान में जिस तरीके से प्रणब मुखर्जी ने असहिष्णुता और धार्मिक मत का उल्लेख किया, उससे जमावड़ा लगाये प्रशिक्षित संघियों ने इसे किस नज़रिये से देखने की कोशिश की होगी यह सवाल बड़ा है ? उन्होंने कहा “धार्मिक मत और अहिष्णुता के माध्यम से भारत को परिभाषित करने का कोई भी प्रयास देश के अस्तित्व को कमज़ोर कर सकता है।”
प्रणब दा के जाने के मायने और संघ क्या हासिल करना चाहता है, यह बहस तो अंतहीन है। परंतु संघ और उसके स्वंयसेवकों का इस पूरे भाषण पर क्या मत है ? क्या वे इस बात से ही संतुष्ट है कि एक वरिष्ठ कॉंग्रेसी उनके मंच पर पहुंचा और तस्वीरों के अक्स में सारे देश को संदेश देने में वह अब सफल हो जायेगा या इस पूरे हिस्से को 2019 में मोदी से हटकर संघ को प्रासंगिकता के छाये में लाने की कोशिश के रूप में देखे ।
प्रणब मुखर्जी ने पूरे संबोधन में एक ही बार संघ से जुड़े किसी व्यक्ति का ज़िक्र किया और वह नाम हेडगेवार का था, जिन्होंने 1925 में संघ की स्थापना की थी। उन्होंने हेडगेवार को भारत माता का वीर सपूत बताया। यह काफी असहज करने बात लग सकती है, क्योंकि संघ पर पूर्व में तीन बार प्रतिबंध लग चुका है और एक फैसले में स्वयं प्रणब मुखर्जी की भी हिस्सेदारी थी। आपको लग सकता है कि उस संघ के संस्थापक को वीर सपूत कैसे बताया जा सकता है जिसपर आरोप है कि महात्मा गांधी की हत्या को अंजाम देने वाला नाथूराम गोडसे उसी विचारधारा से प्रेरित था।
लेकिन इन सबके बावजूद, प्रणब मुखर्जी का ऐसे समय पर संघ के किसी कार्यक्रम में जाना जब देश में दलित और मुसलमान की हत्याओं को अंजाम दिया जा रहा है और संघ को सहिष्णुता एवं राष्ट्रवाद का मतलब समझाना काबिल-ए-तारीफ है। हमें ये भी भूलना नहीं चाहिए कि प्रणब मुखर्जी देश के वित्त मंत्री भी रह चुके हैं, कॉंग्रेस की तमाम जन-कल्याण योजनाओं और आर्थिक तरक्की में उन्होंने धन की कोई कमी नहीं आने दी। उनसे यह उम्मीद थी कि वह संघ के पुत्र संगठन भाजपा की आर्थिक नीतियों पर भी कुछ प्रकाश संघियों पर डालते, देश की अर्थव्यवस्था का क्या हाल है ये सब हम देख ही रहे हैं। खैर, हम इस बहस में ज़्यादा उलझ गये थे कि उन्हें जाना चाहिए या नहीं ? संघ के मंच का उन्हें कैसे इस्तेमाल करना चाहिए इसपर हमने गौर करना बेहतर नहीं समझा।
जब सारी दाल गल चुकी है। संघ का समारोह भी हो गया और उसमें पूर्व राष्ट्रपति ने अपनी मौजूदगी भी दिखाई। तो अब उन बिंदुओं पर देखने की ज़रूरत है जिसका ज़िक्र प्रणब दा कर गये और संघ पर इसका कोई असर पड़ेगा या वह अपनी अतिवादी नीतियों आगे बढ़ाने की जुगत में लगा रहेगा ?