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फिल्म में स्वरा के मास्टरबेशन पर बवाल, सेक्स एजुकेशन की कमी का परिणाम है

गली-मोहल्ले, चौक-चौराहे, गलियों और घरों में बसे समाज का बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया पर एक आभासी दुनिया में भी नैतिक-अनैतिक, सही-गलत और संस्कृति-अप-संस्कृति का अपना-अपना एक ऐसा दायरा विकसित कर चुका है, जो पारंपरिक समाज की तरह ही तमाम पहरेदारियां भी करना चाहता है। और उनकी पारंपरिकता पर चोट करने पर चरित्रहीनता का प्रमाणपत्र भी स्वेच्छा से बांट रहा है।

पारंपरिक समाज की तरह उसने लठ्ठधारी ट्रोल भी पाल रखे हैं, जो लिजलिजी बातों से आपको कटघरे में भी रखते हैं। हालांकि इसमें कई ऐसे भी हैं, जो ट्रोल तो नहीं हैं पर रोज़ बदलती चीज़ों और समाज में फैली सड़ी गली मानसिकताओं से खासे नाराज़ हैं।

उन्होंने सोशल मीडिया पर इन तमाम तरह की नाकेबंदी के बाद भी उन तमाम विषयों पर बेबाकी से अपनी बात रखी है, जिसपर बात करना भी लोगों को गवारा नहीं था। “वीरे दी वेडिंग” फिल्म पर हो रही बहसों ने लड़कियों की गालियां बोलने और मास्टरबेशन के सवाल को विमर्श के सतह पर लाकर तो रख दिया है, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है।

शुरुआत में मुझे इस फिल्म पर चल रहे विवाद के बारे में कोई भनक नहीं थी। खबरें और सोशल मीडिया पर फिल्म को लेकर स्टेट्स मेरी नज़रों के सामने से भाग तो रहे थे लेकिन, उंगलियां चटकाकर देख नहीं रहा था। यहां तक कि मैंने फिल्म भी नहीं देखी थी। फिल्म कल देखी और पहले तो यह तय कर लिया कि रिव्यू नहीं लिखूंगा। क्योंकि मेरी समझ से यह फिल्म इन्हीं विषयों के साथ और बेहतर अभिव्यक्ति दे सकती थी। खैर निमार्ता-निर्देशक, अभिनय और फिल्म की सीमाओं पर बात करने की मेरी इच्छा भी नहीं है।

“मंटो” फिल्म के टीज़र के शब्दों को उधार में लेकर कहूं तो “यह फिल्म समाज के काली तख्ती पर सफेद खल्ली का इस्तेमाल भर है, जिससे समाज की काली तख्ती और अधिक नुमाया हो गई है।” वह सभ्य समाज इस फिल्म में अभिनेत्रियों के गालियां देने से अपनी मुक्के तान रहा है, जो दूसरी फिल्मों में द्विअर्थी संवादों और पुरुषों के गाली भरे डायलॉग पर सिनेमाघरों में तालियां बजाता है। नॉन-वेज चुटकुले वाट्सएप ग्रुप में भेजकर छिछोरी हंसी की ईमोजी भी भेजता है। कोई फिल्म किसी समाज को क्या नंगा करेगी, जब वो पहले से ही नंगी है। इस फिल्म ने समाज के पवित्र लोगों की नैतिकता को ठेंगा दिखाकर समाज के सच को फिल्म रूपी स्क्रीन में पेश कर दिया है।

फिल्म के अंदर आपको गालियां और मास्टरबेशन करती हुईं अभिनेत्रिया पसंद आये ना आये, ये आपकी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद हो सकती है। पर समाज के अंदर और सामाजिक लोकाचार में गालियां और मास्टरबेशन मौजूद है, आप इससे इंकार नहीं कर सकते। इस फिल्म ने समाज को आईने में उसका बदसूरत चेहरा दिखाकर पुरुष समाज के पौरूषता पर सेंधमारी की है, जिसका प्रदर्शन वास्तव में समाज को नश्तर की तरह चुभ रहा है।

गौरतलब है, गालियों का इस्तेमाल अगर वर्चस्व को स्थापित करने के लिए होता है तो उसी गालियों का इस्तेमाल प्रतिरोध को भी स्थापित करने के लिए होता है। गालियां और खासकर महिला विरोधी गालियों का इस्तेमाल ही ना हो, इसके समाजशास्त्र और भाषा के पहलूओं पर जाने से पहले यह भी देखना ज़रूरी है कि समाज में किस-किस तरह के शब्दों के टुकड़े बिखरे पड़े हैं।

गालियों के साथ-साथ यह फिल्म का विरोध मास्टरबेशन के सीन पर है। हाल के दिनों में सोशल मीडिया ने महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी कई पहलूओं पर विमर्शों की नई ज़मीन प्रदान की है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है, इसके अच्छे और बुरे दोनों ही पहलुओं पर बातचीत और अंर्तद्वंद दोनों ही सामने आए हैं।

मास्टरबेशन भी उसका ही एक पहलू है, जो स्त्री-पुरुष दोनों के ही जैविक आवश्यकताओं के साथ-साथ पर्देदारी में छिपी हुई मानवीय कृत्य है। जो स्वस्थ शरीर के लिए सही है या नहीं इसपर डॉक्टरी साइंस और शोध भी अपने-अपने तर्कों के साथ उलझा हुआ है। मास्टरबेशन पर “अपना हाथ जगन्नाथ” जैसे मज़ाकिया जुमले ज़रूर प्रसिद्ध हैं, पर यह स्त्री-पुरुष दोनों के मध्य मौजूद है इससे कोई इंकार नहीं कर सकता।

फिल्म में अभिनेत्री के द्वारा मास्टरबेशन के सीन पर विवाद यही दिखाता है कि सेक्स पर हमारे समाज का अंर्तविरोध सेक्स शिक्षा को लेकर अधिक जागरूकता की मांग करता है। अगर सेक्स शिक्षा पर समाज जागरूक होता तो फिल्म की स्त्री द्वारा मास्टरबेशन के विरोध के बजाए इसपर स्वस्थ बहस आयोजित करने की मांग करता।

आखिर पुरुषों के मास्टरबेशन पर भी कभी कोई चर्चा होती है तो वह भी पत्रिकात्रों में डॉक्टर के कॉलम के संवाद तक ही सीमित होती है। ज़ाहिर है सेक्स से जुड़ी भ्रातियों पर जब तक शर्म और पर्दादारी पर आलादीन का ताला जड़ा रहेगा, इस तरह की फिल्में समाज की काली तख्ती पर सफेद खल्ली से काली तख्ती को नुमाया करती रहेंगी। ज़रूरत इस बात की है कि इन विषयों पर बात की जाए।

बहरहाल, फिल्म केवल गालियां और मास्टरबेशन के विवाद तक ही सीमित नहीं नज़र आती है। धड़ल्ले से गालियां, सिगरेट-शराब और छोटे कपड़े पहनी लड़कियां केवल सेक्स की वर्जनाओं को ठेंगां नहीं दिखाती हैं। चार लड़कियां चार कहानियों के माध्यम से यह भी बयां करने की कोशिश करती हैं कि हकीकत से इंकार करना, कभी किसी को बेहतर इंसान नहीं बना सकता। यह लड़कियां तमाम लंपटई के बाद भी जीवन के विरोधाभासों से मैदान छोड़कर भागती नहीं हैं, उससे लड़ती भिड़ती नज़र आती हैं। आखिर आप जीवन की सारी परेशानियों से मुंह फेर भी ले तो अपने ज़मीर को क्या जवाब देंगे

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