कविता
कोई ज़रूरी नहीं
कि कोई कवि ही लिखे !
एक सुंदर कविता की रचना
तो पत्नियां भी करती हैं रोज़-रोज़
आटे को गूंथती हुईं
कि पानी की कितनी मात्रा चाहिए
रोटी के अलौकिक स्वाद के लिए !
पर हम कहां पढ़ पाते हैं
अलौकिक स्वाद वाली उस कविता को
सिवाय रोटियां भकोसने के !
आपने देखी ही होगी
खेतों में रोपाई करती हुईं गंवई औरतें
कि किस अलौकिक दुलार से
गाडती जाती हैं छौने पौधों को
गीली मिट्टी में ज़रूरी दूरियों पर !
पर हम कहां पढ़ पाते हैं
उस अलौकिक दुलार को
सिवाय एक ख़ास कोण पर झुके
उनके बदन को लोलुप नज़रों से देखने के !
कविता तो तब भी फूट पड़ती है
जब पत्थर कूटतीं गठीली औरतें
शिथिल कर देती हैं
अपनी अलौकिक स्वर-लहरियों से
हथौड़े के वज्र प्रहार को मानो
रूई धुनक रहा है कोई धुनिया !
पर हम कहां सुन पाते हैं
उन अलौकिक स्वर लहरियों को
सिवाय गिट्टी के आकार को जांचने के !
कविता
महज़ कलम की चीज़ नहीं है
उसमें वह अलौकिकता भी चाहिए
जो केवल और केवल
औरतों के दैनंदिन श्रम से निःसृत होती है !