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टीपू से सुल्तान तक: यूपी का वो मुख्यमंत्री जो अपनों से हारा- भाग 2

पिछले भाग मे यूपी के बड़े राजनीतिक परिवार के एक सदस्य के राजनीति में आने और यूपी के चुनाव मे ज़ोर आज़माइश कर पार्टी को दुबारा सत्ता तक लाने में की गई मेहनत और सफलता की कहानी बताई गयी थी। अब आगे-

समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में बहुमत प्राप्त कर सरकार बनाने जा रही थी लेकिन मुलायम सिंह यादव, भविष्य की राजनीति मे संभावनाए टटोल रहे थे। मुलायम के करीबियों ने मंत्री पद और अहम ज़िम्मेदारियों को संभालने की तैयारी कर ली थी कि अचानक राजनीति के अखाड़े के धुरधंर पहलवान मुलायम सिंह यादव ने एक राजनीतिक दांव खेल दिया अपने करीबियों से राय ली, जो नहीं माने उन्हें राज़ी किया गया। भविष्य की राजनीति समझाई गयी, सम्मान का भरोसा दिलाया गया और अखिलेश की ताजपोशी और उनके साथ काम करने के लिये वरिष्ठ नेताओं को तैयार कर लिया गया।

यहीं से अखिलेश के राजनीतिक सफर ने करवट बदलना शुरू किया अखिलेश सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री बने तो कद भी बढ़ा और साथ ही दोस्त और दुश्मन भी। अखिलेश की ताज़पोशी तो स्वीकार कर ली गयी लेकिन मुलायम के पीछे अपने लिये अपार संभावनाए तलाश रहे नेताओ को ये फैसला अच्छा नहीं लगा।

अखिलेश सियासत मे नये नहीं थे इसलिये अपने हमउम्र साथियों और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की मिली-जुली कैबिनेट को संभालते हुये कब धीरे-धीरे पार्टी उनकी शख्सियत और राजनीतिक समझ पर निर्भर हो गयी ये अखिलेश को भी पता नहीं चला।

मगर 2014  लोकसभा चुनाव ने विरोधियों को एक मौका दिया। मोदी लहर मे जब सारी पार्टियों का सूपड़ा साफ हुआ तो अखिलेश पर भी सवाल उठे लेकिन मुलायम सिंह ने अखिलेश को पूरी छूट दी और ज़िला व प्रदेश की कमेटिया भंग कर दी।

जहां अखिलेश के कमज़ोर पड़ने की उम्मीद की जा रही थी वहीं ज़िला और प्रदेश स्तर पर अखिलेश नये तौर पर अपने युवा साथियों को ले आये और साफ संदेश दे दिया गया कि अगला चुनाव अखिलेश के दिशा निर्देश में ही होगा।

इस बीच अखिलेश ने कुछ योजनाओं पर अपना पूरा ध्यान लगा दिया मेट्रो ट्रेन, आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे, समाजवादी पेंशन जैसी योजनाए शुरू हो चुकी थी। अब अखिलेश बीते तीन साल की अपनी सरकार की छवि सुधारने में लग गये। सरकार पर सवाल उठते रहे लेकिन अखिलेश की सौम्य और ईमानदार छवि ने उनके विरोधीयों को भी उन पर सीधे आरोपों का मौका नहीं दिया।

अखिलेश के साथ काफी संख्या मे साफ सुथरी छवि के वरिष्ठ और युवा विधायक और नेता भी जुड़ते रहे ताकि जनता में अखिलेश यादव के चेहरे के सहारे चुनाव लड़ा जा सके। इसी बीच अखिलेश ने भविष्य की राजनीति के लिये अपनी एक कोर टीम तैयार कर ली थी जिनमें से कुछ को विधान परिषद सदस्य और संगठनो मे पद देकर पार्टी में अपनी और अपने करीबियों की जड़े जमा ली थी।

अखिलेश यादव 2017 के चुनाव को देखकर कुछ अधिक स्वतंत्रता से कार्य कर रहे थे और यही बात पार्टी की एक वरिष्ठ लॉबी को खल रही थी। अखिलेश यादव वरिष्ठ नेताओं को सम्मान तो दे रहे थे लेकिन नौकरशाही और प्रशासन मे इनकी दखलअंदाज़ी अब सीमित कर दी गयी थी। इसी कड़ी में अखिलेश यादव ने कुछ मंत्रियों पर लगे आरोपों के बीच दो कैबिनेट मंत्रियों को हटा दिया, सपा में ये बड़ा फैसला था।

2012 चुनाव के बाद अखिलेश की ताजपोशी के बाद परिवार और पार्टी मे पड़े नाराज़गी के ये बीज चहेते मंत्रियों के हटने की उपजाऊ ज़मीन पाकर अंकुरित हो उठे, और अखिलेश यादव के खिलाफ पार्टी में ही एक छोटी सी लॉबी तैयार हो गयी।

इस लॉबी की दिल्ली में हुई पार्टी में शामिल नेताओं से कुछ आला नौकरशाहों की अखिलेश के खिलाफ लगाई बुझाई में नेताजी के खास रहे मुख्य सचिव हटा दिये गये। जब पार्टी के नेताओं के दबाव और नौकरशाही की माफी के बीच दोबारा अखिलेश को यह निर्देश मिले कि इनको बहाल कर दिया जाये तो अखिलेश भड़क उठे, उन्हें लगा दो दिन के भीतर फैसला बदलने से जनता के सामने फजीहत तो होगी साथ में साढ़े चार सीएम की कहावत भी सच साबित हो जायेगी।

नेताजी थोड़ा नाराज़ ज़रूर हुये लेकिन अखिलेश की मजबूरी भी समझ रहे थे मगर आग में घी का काम किया फिल्मी सितारों, उद्योगपतियों, और नेताओं से लॉबिंग कराने वाले और परिवार के खास रह चुके बाहरी सदस्य ने, उस व्यक्ति को भी पता था कि अखिलेश अब ‘टीपू’ नहीं ‘टीपू सुल्तान’ बन चुके हैं और उनकी कलम अब दबाव में नहीं चलेगी।

सपा परिवार मे एक खेमा पहले से असंतुष्ट था और उन्हें नेताजी को अपने पाले में करने का यह सुनहरा मौका मिल गया था। इस खेमे ने मुलायम सिंह यादव से एक बड़ा फैसला करा डाला। राष्ट्रीय मीडिया मे हलचल बढ़ चुकी थी।

अखिलेश के 4 विक्रमादित्य मार्ग स्थित निजी आवास की फैक्स मशीन चमकी और दिल्ली से सपा राष्ट्रीय अध्यक्ष का आदेश सफेद पन्नों पर काली स्याही से चमकने लगा।

उस पत्र मे ऐसा क्या आदेश था जो चुनाव से ठीक पहले कई महीनो तक सपा मे घमासान मचा गया?

अखिलेश यादव के लिये वो पत्र क्या संकेत था और अखिलेश का जवाब क्या था?

और उस पत्र के बाद समाजवादी पार्टी में कैसे दो धड़े नज़र आये ये सब इस लेख के तीसरे भाग में।

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