14 जून 2018 की शाम को ‘राइजिंग कश्मीर’ अखबार के संपादक शुजात बुखारी की गोली मारकर हत्या कर दी गई। बुखारी के अलावा उनके दो सरकारी अंग रक्षकों की भी गोली लगने से मौत हो गई। उनकी हत्या उस समय की गई, जब वह अपने कार्यालय से अपने घर की तरफ रोज़ा तोड़ने के लिए जा रहे थे।
कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने उनकी हत्या पर शोक जताते हुए कहा, “यह दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय है।”
शुजात बुखारी जी की हत्या ने देश में पत्रकारों की सुरक्षा पर बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं। आए दिन किसी ना किसी पत्रकार को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ रहा है।
कश्मीर में यह पहला वाक्या नहीं है, जब किसी पत्रकार की इस तरीके से हत्या कर दी गई हो। इससे पहले भी कई आतंकी समूहों द्वारा अलग-अलग सालों में पत्रकारों की हत्या की गई है।
1990 से लेकर अब तक देश में 80 से ज़्यादा पत्रकारों की हत्या हो चुकी है। 1992 से लेकर अभी तक लगभग 48 पत्रकारों की हत्या की जा चुकी है। यह इस बात को प्रमाणित करता है कि सरकार हो या फिर आतंकी दोनों ही कलम से डरते हैं, दोनों ही प्रयास करते हैं कि आवाज़ दबा दी जाए जिससे इस आवाज़ को कोई ना सुना जा सके ?
शुजात बुखारी साहब को पीढ़ियां याद रखेंगी, यह तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि लोग भूल जाते हैं। चाहे वह कोई भी क्यों ना हो। कुछ दिन भले ही इनकी प्रशंसा में प्रेम गीत गाए जाएंगे और नेता मज़ार पर जाकर फूल चढ़ा देंगे लेकिन फिर धीरे-धीरे सब खत्म हो जाएगा।
फिर देश के किसी कोने में किसी पत्रकार पर, गोली चलेगी और फिर वही नाटक चलता रहेगा। इसे बदले जाने की ज़रूरत है।
प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक की रिपोर्ट के अनुसार भारत का स्थान 136 वें स्थान से घटकर 138 वें स्थान पर आ गया है। यह दर्शाता है कि देश में पत्रकार बेहद असुरक्षित हैं। भारतीय लोकतंत्र के अनुच्छेद 19(1) के तहत आप संवैधानिक दायरे में रहकर असहमत होने का अधिकार रखते हैं, आप आलोचना कर सकते हैं, क्योंकि इसका मतलब तो अभिव्यक्ति की आज़ादी है।
सरकार और समाज यह ध्यान रखें कि लोकतंत्र में लोक और तंत्र के बीच जो क्रांतिकारी संभावना है, उसको ऊर्जावान पत्रकारिता ही बनाए हुए है। समाज को इस बात का भी स्मरण रहना चाहिए कि लोक और तंत्र के बीच जो संधि है, जो सेतु है, वह इस देश की पत्रकारिता ने ही जीवित कर रखा है।
इन सबके इतर, इन सबसे अलहदा, कलम और पत्रकारिता की जो खूबसूरत चीज़ है, वह यह कि आप पत्रकार को मार सकते हैं, कलमकार को खत्म कर सकते हैं, पर पत्रकारिता को मारना नामुमकिन है। पत्रकारिता अक्षरों से भाव लिखती है, अक्षर का मतलब होता है, जिसका क्षरण ना हो, यानी जिसे खत्म नहीं किया जा सके।
कलम हर बार किरदार बदल देती है, क्योंकि हर बार कोई ना कोई इस कलम को थाम लेता है। इसलिए आतंकियों या वह शाक्तियां जो जबान सिल देना चाहती हैं, उन्हें समझना होगा कि वह ऐसा नहीं कर सकती, क्योंकि ऐसा करना मुमकिन ही नहीं है।
हम नमन करते हैं, शुजात बुखारी साहब को आप अपना रोज़ा तो नहीं तोड़ पाए, यह भी तय नहीं कि आपका बलिदान घाटी से आतंकियों की पहुंच तोड़ पाएगा या नहीं लेकिन पत्रकारिता की आने वाली पीढ़ी के लिए आप एक लाइन छोड़ गए हैं जो आपने अपने आखिरी ट्वीट में कही थी-
“यहां हमने पत्रकारिता पूरे गर्व और निष्ठा से की है, हम आगे भी यही करते रहेंगे।”