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शिक्षा कोई उद्योग नहीं, जहां ज़्यादा घंटे काम करके अधिक उत्पादन किया जा सके

हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था पर काफी लम्बे समय से चर्चा चल रही है। स्कूली शिक्षा नीति पर तो सरकार ने एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति तैयार कर ली है, और इसके अंतर्गत परिवर्तन चलाए जा रहे हैं या भविष्य में किए जाएंगे।

इसी प्रकार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी परिवर्तनों की आवश्यकता है। उच्च शिक्षा का हमारा एक विद्यार्थी लगभग चालीस घंटे प्रति सप्ताह कॉलेज के लेक्चर सुनने और प्रायोगिक कार्यों वगैरह में लगा देता है।

क्या उच्च शिक्षा के विद्यार्थी के लिए इतना काफी है। क्या हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था हमारे विद्यार्थियों को कुछ नवीन सोचने-समझने और करने के लिए सही दिशा और पर्याप्त साधन दे पा रही है?

ऐसे कई सवाल आज ही नहीं, बल्कि लम्बे समय से चलते आ रहे हैं, जिन पर जल्द ही कोई कदम उठाने की आवश्यकता है।

उच्च शिक्षा के स्तर पर आकर शिक्षा का उद्देश्य मात्र क्लास रूम के ज़रिए विद्यार्थियों को पढ़ाना नहीं होता, बल्कि इससे ज़्यादा उन्हें यथार्थ के स्तर पर उतारकर दुनिया से सिखाना और तैयार करना होता है। अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों में विद्यार्थी एक सप्ताह में मात्र 15 घंटे क्लास रूम लेक्चर में समय देते हैं। बाकी का समय वह स्व-अध्ययन और अप्रत्यक्ष रूप से कुछ ग्रहण करने में लगाते हैं। हमारे देश में तो फैक्ट्री एक्ट में भी 48 घंटे प्रति सप्ताह से अधिक काम की सिफारिश नहीं की जाती। तो क्या हमारे विद्यार्थी एक श्रमिक से भी अधिक काम में लगाए रखने वाले बंधुआ हैं, जिनके पास अपना कुछ नया सोचने और करने के लिए समय ही नहीं है?

विदेशों में 3 घंटे क्लासरूम, लेक्चर लेने वाले विद्यार्थी से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने क्लास रूम लेक्चर के हर घंटे के साथ ही अतिरिक्त दो घंटे लगाकर बाहरी जगत से कुछ सीखेगा। इस प्रकार वहां के विद्यार्थी लगभग 45 घंटे प्रति सप्ताह अध्ययनरत रहते हैं। हमारे देश में यदि क्लासरूम लेक्चर, ट्यूटोरियल्स या प्रायोगिक काम मिलाकर एक विद्यार्थी 40 घंटे व्यतीत करता है, तो इस तरह से हम भविष्य के लिए क्या तैयार कर रहे हैं? उसे इन सबके बाद बाहरी जगत से कुछ सीखने के लिए वक्त ही नहीं मिलता है। शायद यही कारण है कि असीम प्रतिभाओं के होते हुए भी देश में शोध एवं अनुसंधानों की इतनी कमी है।

उच्च शिक्षा में चल रहे इस घिसे-पिटे ढर्रे से बाहर निकलने की बहुत ज़रूरत है। सबसे पहले तो हमें क्लास रूम शिक्षा के घंटों को कम करके प्रति सप्ताह 15 घंटे तक सीमित करना होगा। यह समझना होगा कि विद्यार्थी के लिए क्लासरूम शिक्षा से ज़्यादा महत्वपूर्ण सीखना है।

दूसरा पक्ष उच्च शिक्षा से जुड़े शिक्षकों के लिए 40-45 घंटे प्रति सप्ताह पढ़ाने का भार भी हटाना चाहिए। अगर प्रोफेसर, लेक्चरर, एसोसिएट प्रोफेसर वगैरह पर इस प्रकर का बंधन लाद दिया जाएगा, तो ज़ाहिर है कि विद्यार्थी को भी अपने वे घंटे शिक्षक को देने होंगे। उच्च शिक्षा का एक शिक्षक 15 घंटे में भी विद्यार्थियों को उच्च गुणवत्ता के ज़रिए वही पढ़ा सकता है, जो वह 45 घंटों में पढ़ाता है। शिक्षा और उद्योगों के इनपुट और आउटपुट में बहुत अंतर होता है।

शिक्षा का क्षेत्र उद्योग की तरह नहीं है, जहां अधिक घंटे तक काम करके अधिक उत्पादन किया जा सके। शिक्षा में तो घंटे चाहे कम हों, काम की गुणवत्ता उत्कृष्ट होनी ज़रूरी है। परिणाम तभी बेहतर हो सकते हैं।

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