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ट्रांसजेंडर समुदाय की समस्या कानूनी से अधिक सामाजिक है

कुछ दिन पहले महाराष्ट्र के मुंजीवाड़ा में एक ट्रांसजेंडर के पीटे जाने का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा था, जो यह सिद्ध करने के लिए काफी था कि देश में सामाजिक लोकतंत्र अब सामंती या बर्बर युग में प्रवेश कर चुका है।

हाल के दिनों में ट्रांसजेंडर समुदाय की उपलब्धियों की खबरें भी मीडिया स्पेस और अखबारी कॉलमों का हिस्सा बन रही हैं। बात सिर्फ उन मनोवृत्तियों पर नहीं हो रही है, जिसके कारण हमारे देश में सर्वोच्च न्यायालय के “थर्ड जेंडर” की स्वीकृति और लिंग के आधार पर समानता के संवैधानिक दावे के बाद भी ट्रांसजेंडर समुदाय सामाजिक विगलाव का शिकार हैं? ज़ाहिर है सामाजिक लोकतंत्र के मामले में समाज को अभी कोसों लंबी दूरी तय करनी है।

किन्नर या ट्रांसजेंडर का नाम सुनते ही आज भी कई लोगों के मन में एक ही छवि बनती है, ट्रेन या बसों के सफर में भी या महानगरों में ट्रैफिक सिग्लनों पर या सार्वजनिक जगहों पर एक अलग अंदाज़ से ताली बजाकर अपने लिए कुछ पैसे मांगने वाले समुदाय। शायद ही कोई व्यक्ति इस समुदाय से रूबरू नहीं हुआ होगा, पर इस समुदाय के बारे में हमारी जानकारी अधूरी है। ट्रांसजेंडर समुदाय के मानवीय अधिकारों को लेकर भारत ही नहीं, दुनिया में लंबे समय से बहसें जारी हैं।

इस सोमवार यानी 18 जून को विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO ने रोगों के अंतरराष्ट्रीय वर्गीकरण की सूची के 11वें संस्करण में ट्रांसजेंडर को मानसिक बीमारी की श्रेणी से हटाकर “सेक्शुअल हेल्थ कंडीशन” के रूप में सूचीबद्ध किया है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO  को उम्मीद है कि इससे ट्रांसजेंडर समुदाय की सामाजिक स्वीकृति बढ़ेगी और उन्हें खुलकर अपनी पहचान ज़ाहिर करने में आसानी होगी। मगर, कैसे ? यह सवाल अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि ट्रांसजेंडर समुदाय के प्रति पूर्वाग्रहों और गलत धारणाओं का एक बड़ा कारण जागरूकता में कमी है।

हम सब जानते हैं कि स्त्री-पुरुष के अलावा हमारे मध्य सोशल हायरार्की में एक आबादी ऐसी भी है जो सम्मानजनक तरीके से जीने के हकूक के लिए संघर्षरत है। 2014 में सर्वोच्च न्यायालय के ट्रांसजेंडर समुदाय को “थर्ड जेंडर” के तौर पर मान्यता देने के बाद, कई राज्यों ने ट्रांसजेंडर समुदाय को आर्थिक और सामाजिक मान्यता देने के लिए सकारात्मक प्रयास किए, पर सामाजिक मानसिकता आज भी ढाक के तीन पात की तरह ही जड़ बनी हुई है।

सरकारी नीतियों की सकारात्मक कोशिशों से ट्रांसजेंडर समाज मुख्यधारा में सम्मान और अधिकार हासिल करने के लिए अपने बलबूते पहचान भी बना रहा है। चाहे चेन्नई की वीके पृथिका हो, जो देश की पहली ट्रांसजेंडर पुलिस सब-इंस्पेक्टर हैं, या “द सिक्स पैक बैंड” छह ट्रांसजेंडर गायकों की टोली हो या मानबी बंधोपाध्याय जो पहली महिला ट्रांसजेंडर है जिन्हें किसी विश्वविद्यालय ने पीएचडी की उपाधी दी, या ओडिशा की मेघना साहू, जो एचआर एंड मार्केटिंग से एमबीए और ओला की पहली ट्रांसजेंडर ड्राइवर हैं, हैदराबाद की शबनब को देश की पहली ट्रांसजेंडर MLA का सम्मान हासिल है, छत्तीसगढ़ की मधु महापौर बन चुकी हैं, पद्मिनी प्रकाश ने अपनी प्रतिभा के बल पर न्यूज़ एंकर की नौकरी हासिल की, जोइता मंडल ने अपनी पहचान देश की पहली ट्रांसजेंडर जज के तौर पर बनाई है। छत्तीसगढ़ और कुछ राज्यों में ज़िला पुलिस में भी ट्रांसजेंडरों की भर्तियां चल रही हैं।

इस बात से इंकार नहीं है कि धीरे-धीरे समाज में ट्रांसजेंडर समुदाय के प्रति सामाजिक जागरूकता बढ़ रही है। सरकारी महकमों और समाज की धड़ों में भी ट्रांसजेंडर समुदाय के प्रति सकारात्मक बदलाव भी आ रहे हैं। पर इन तमाम कोशिशों के बाद क्या हम और हमारा समाज सेक्शुअल ओरिएंटेशन को नकारने की कोशिश नहीं करते हैं?

हम अपने समाज के विदूप से मुंह फेर कर नहीं बैठे हैं, जहां हर गली में पितृसत्ता सीना-ताने घूमती है जो महिलाओं के साथ-साथ ट्रांसजेंडर सुमदाय को भी अलगाव के श्रेणी में रखती है। समाज के ठेकेदारों और चौहद्दीदारों को इस बात की सुध ही नहीं है कि सामाजिक पितृसत्ता ने उसे कितना असमाजिक बना दिया है।

ज़रूरत इस बात कि अधिक है कि समान नागरिक होने की पहचान जो आज तक समाज में ट्रांसजेंडर समुदाय को नहीं मिली है, इस दिशा में सामाजिक समाजीकरण के बदलाव के लिए मूलभूत फैसले लिए जाएं और उनको लागू किया जाए। समाज के अंदर ट्रांसजेंडर समुदाय की लैंगिक भावनाओं को लेकर फैली भ्रांतियों को तोड़ा जाए, क्योंकि यही भ्रांतियां उनके मनुष्य होने पर ही सवाल उठाती हैं।

भारत जैसे देश में 2014 में सर्वोच्च न्यायलय के फैसले ने ट्रांसजेंडर समाज की ज़िंदगी में नई रोशनी दिखाई है, उस रोशनी में विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO का हालिया फैसला उम्मीद की एक और नई रोशनी हो सकती है।

परंतु, कोई भी नीति या कानून ट्रांसजेंडर समुदाय को कानून हकूक दिला सकता है पर समाजिक पहचान के अभाव में वह अधूरा ही रहेगा। सरकारों के साथ-साथ समाज को भी यह समझना होगा कि ‘थर्ड जेंडर’ की बड़ी आबादी अपनी सकारात्मकता और रनचात्मकता से देश के विकास में अपना योगदान वैसे ही कर सकती है, जैसे हम कर रहे हैं, बस उन्हें समान नागरिक के तौर पर देखे जाने की ज़रूरत है। क्योंकि ट्रांसजेंडर समुदाय की समस्या संवैधानिक से अधिक सामाजिक है।

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