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‘वीरे दी वेडिंग’ और कुछ भी हो लेकिन एक फेमिनिस्ट फिल्म बिल्कुल नहीं है

अधिकांशतः लोग किसी फि  ल्म रिव्यू को बस ये निष्कर्ष जानने के लिए पढ़ते हैं कि फिल्म अच्छी है या नहीं जो कि रिव्यू के आखिर में दिया होता है। लेकिन मैं आपको इस आर्टिकल को स्क्रोल कर-कर के नीचे जाने की ज़हमत से बचाते हुए शुरुआत में ही साफ बता देना चाहता हूं कि ‘वीरे दी वेडिंग’ अच्छी फिल्म नहीं है। अगर आपका जजमेंट अच्छा है तो इस बात का अंदाज़ा आपको ट्रेलर देख के ही लग गया होगा।

अब आप सोच रहे होंगे कि जब फिल्म कैसी है ये पता चल ही गया तो बाकी का आर्टिकल क्यों पढ़ें? ये आर्टिकल पढ़ना इसलिये ज़रूरी है ताकि आपको इस फिल्म से जुड़े तमाम तरह के सवालों, जैसे कि ये फेमिनिज़्म का सही चेहरा पेश करती है या नहीं, के जवाब जानने के लिए इस फिल्म को बर्दाश्त करने की सज़ा ना झेलनी पड़े।

ये फ़िल्म दिल्ली के पॉश वातावरण में आधारित चार दोस्तों की कहानी है। पॉश वातावरण का ज़िक्र इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि फ़िल्म के प्लॉट का बड़ा हिस्सा इसके किरदारों की रईसी और इस रईसी के प्रदर्शन के बारे में ही है। उसके बाद बची-खुची जगह में कुछ गाने, कुछ अधपकी एक्टिंग और ढेर सारे प्रॉडक्ट प्लेसमेंट घुसा दिए गए हैं। उन चार दोस्तों में से एक कालिंदी (करीना कपूर) के किरदार की शादी में चारो दोस्त कई सालों बाद मिलते हैं। चारों की ज़िंदगी की अपनी-अपनी परेशानियां है जो कि इस फिल्म के क्लाइमेक्स आते-आते ठीक हो जाती है।

All is well that ends well के फलसफे को आत्मसात करती इस फिल्म की कहानी में ज़्यादा कुछ खास है नहीं। सारे किरदार हल्के हैं यानी कि किसी को ढंग से एक्सप्लोर नहीं किया गया है और फिल्म के खत्म होने के बाद भी आप ये नहीं समझ पाते हैं कि किस के मन में क्या चल रहा था। फिल्म में सारे अच्छे एक्टर्स होने के बाद भी सब कुछ बिल्कुल टीवी सीरियल लेवल का था यानी कि काफी ड्रामैटिक और निम्न स्तर का। वीरे दी वेडिंग में सिनेमाई तौर पे कुछ ऐसा है नहीं जिसकी अलग से बात की जा सके। अब इसके आगे की बात में आपको कुछ स्पॉइलर मिलेंगे। हालांकि मुझे नहीं लगता कि स्पॉइलर सही शब्द होगा क्योंकि इस फिल्म को और ज़्यादा स्पॉइल करना यानी बर्बाद करना मुमकिन ही नहीं है।

तो अब आते हैं इस फिल्म के साथ जुड़े मुद्दे पर। सबसे बड़ा मुद्दा जो कि इसके रिलीज़ के पहले से ही ज़ोर पकड़े हुए था वो ये था कि क्या ये फिल्म एक फेमिनिस्ट नज़रिया सामने रखती है या फिर ये बस फेमिनिज़्म का नाम इस्तेमाल कर उसके सिद्धांतों के ठीक उल्टा जा के इस पूरे cause को ही नुकसान पहुंचाती है?

इस फिल्म को बनाने वाले जो भी दावा करें, ये फिल्म तो फेमिनिस्ट बिल्कुल नहीं है। इस फ़िल्म के शुरू के आधे घंटे में ही दो छोटे छोटे सीन्स से ये बात साफ हो जाती है। एक सीन है जहां सोनम कपूर का किरदार, जो कि एक वकील है, एक तलाक के मामले की सुनवाई के दौरान पत्नी को alimony मिलने के खिलाफ ये दलील देती है कि चूंकि पत्नी शादी के दौरान कोई काम नहीं करती थी उसे तलाक के बाद गुज़ारे भत्ते (alimony) मिलने का कोई हक नहीं। ये दलील जिस तरह दी जाती है उस से साफ होता है कि तलाक़ और alimony के मामले में किस तरह के रवैये को इस फिल्म में बढ़ावा दिया जा रहा है।

इसके अलावा एक सीन है जहां सोनम कपूर के किरदार की नौकरानी को घरेलू हिंसा का शिकार दिखाया जाता है। लेकिन उस बात को जितने हल्के-फुल्के ढंग से दिखाया गया है वो परेशान करने वाला है। 

फिल्मों, कहानियों या किसी भी तरह के फिक्शन में औरतों की क्या अहमियत है इसकी परीक्षा करने के लिए एक बेकडेल टेस्ट (Bechdel Test) होता है। इस टेस्ट में देखा ये जाता है कि किसी फिल्म या कहानी की दो महिला किरदार क्या कभी आपस में ऐसी बातें करते दिखाई जाती हैं जो किसी मर्द के बारे में न हो। आप ऐसी उम्मीद करेंगे कि जो फिल्म चार लड़कियों के बारे में है वो इस टेस्ट पे खरी उतरेंगी। लेकिन ऐसा होता नहीं है। इस फिल्म के सारे डायलॉग, सारी समस्याओं के केंद्र में एक मर्द ही होता है।

किसी फिल्म में फीमेल लीड होना ही उस फिल्म के फेमिनिस्ट होने के लिए काफी नहीं होता। और इसके ही साथ ये बात भी उतनी ही सच है कि हर फीमेल लीड वाली फिल्म से ये उम्मीद करना कि ये औरत मर्द के बीच के असमानता के मुद्दे पर सशक्त हो के विचार देगा ये भी सही नहीं है। फिल्मों के उपर ये दायित्व बिल्कुल नहीं डाला जाना चाहिए कि वो समाज की बेहतरी के लिए कोई सोशल मैसेज अनिवार्य रूप से दे। फिल्में, राइटर या डायरेक्टर की अभिव्यक्ति का माध्यम है और उस पर किसी भी तरह की बंदिश या किसी तरह की अनिवार्यता नहीं लादी जानी चाहिए। ये ज़रूर है कि आप किसी फिल्म को पसंद या नापसंद कर सकते हैं लेकिन आप उसको बनाने वाले पे अपना विजन थोप नहीं सकते।

उसके अलावा एक और चीज़ की सख्त ज़रूरत है और वो है कि औरतों के सिगरेट, शराब पीने, अपने पसंद के कपड़े पहनने, अपने हिसाब की सेक्सुअल लाइफ रखने या गालीयां देने को फेमिनिज्म के होने या न होने से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। किसी औरत का ये सब करना उतना ही साधारण है जितना किसी मर्द का करना। एक लड़की या औरत शराब पीती है क्योंकि उसे पीना अच्छा लगता है। वो गाली देती है क्योंकि उसे देनी आती है और उसे कोई परहेज़ नहीं। औरतों पर फेमिनिज़्म के अच्छे या बुरे होने के इमेज को बनाये रखने की ज़िम्मेदारी को डालना वैसा ही है जैसा उन पर खानदान की इज्ज़त को बनाये रखने की ज़िम्मेदारी थोपना। फेमिनिज़्म का मतलब बराबरी का दर्जा होता है, ये बात अभी तक सबके दिमाग में साफ हो कर उतर जानी चाहिए और बराबरी कभी भी बुरी नहीं हो सकती।

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