देश के पूर्व राष्ट्रपति और वर्तमान दौर में देश की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी जो एक-एक करके देश के तमाम राज्यों से अपना जनाधार खोते जा रही है अर्थात कॉंग्रेस के भीष्मपितामह कहे जाने वाले प्रणब मुखर्जी बीते दिनों उस विचारधारा के मंच पर बतौर मुख्य अतिथि मौजूद थे, जिसका अपने सक्रिय राजनैतिक जीवन में उन्होंने जमकर ना केवल विरोध किया बल्कि उस संगठन को कई बार चुनावी मंचों से लताड़ा भी।
विधि का विधान देखिये कि प्रणब दा जब आरएसएस के मुख्यालय नागपुर गये तो संगठन के संस्थापक के घर जाकर विज़िटिंग बुक में लिखकर आये भी, “मैं भारत मां के वीर सपूत हेडगेवार को श्रद्धाजंलजी देने आया हूं” यानि बड़े-बुज़ुर्ग सही कह गए हैं कि राजनीति में कोई किसी का स्थाई मित्र-शत्रु नहीं होता।
उनके नागपुर जाने से पूर्व ही उन्हीं के पार्टी के नेताओं ने ना जाने क्या सोच कर पूरे माहौल को इतना तूल और विरोध का प्रतीक बना दिया कि समूचे देश की निगाह इस बात पर थी की मुखर्जी वहां जाकर क्या बोलते हैं ?
इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि काँग्रेस पार्टी कही ना कही पूर्व राष्ट्रपति का संघ के मंच से दिए जाने वाले भाषण की स्क्रिप्ट लिखने की चाह में थी जिसके लिए उनकी ही बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी को अपने ही पिता का नागपुर जाने के फैसले का विरोध करना पड़ा। काँग्रेस तथा शर्मिष्ठा को यह समझना चाहिए था कि आखिर क्यों प्रणब दा राजनीति छोड़ने के बाद कोई भी ऐसा कार्य करेंगे जिससे उनके समूचे राजनैतिक जीवन पर किसी भी तरह का कोई प्रश्न-चिन्ह उठे। शायद यही राजनितिक अपरिपक्वता आज के काँग्रेस का खोते हुए जनाधार का कारण है।
बहरहाल, पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का संघ के मंच से दिया गया भाषण ना केवल अभूतपूर्व था बल्कि साथ ही साथ देश के तमाम राजनैतिक दलों के लिए अपने हिसाब से अपना अर्थ निकालने वाला था और इसिलए हमने कहा, “सही खेल गये दादा”।
इन सभी बातों से इतर ये समझने की सबसे अधिक आवश्यकता है कि मौजूदा हालात में आखिर क्यों प्रणब मुखर्जी के भाषण के तमाम राजनैतिक दलों को एक सीख के तौर पर लेना चाहिये। जब प्रणब दा यह कहते हैं कि हमारे देश में “7 धर्म ,122 भाषाएं, 1600 बोलियां हैं” तब सभी को यह समझने की आवश्यकता है कि विविधता में एकता की हमारे देश की ताकत है और किसी भी राजनैतिक दल को इस विविधता पर किसी भी प्रकार के प्रहार करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। क्योंकि भारत गणराज्य का संविधान हमें एक बनाकर रखता है और संविधान से बढ़कर इस देश में कुछ नहीं।
एक मंझे हुए राजनेता के तौर पर मुख़र्जी जब यह कहते हैं कि विचारों में समानता के लिए संवाद ज़रूरी है तो वो उन सभी दलों, लोगों, व्यक्ति विशेष पर एक साथ प्रहार करते हैं जो देश में संवाद कायम करने की राह में रोड़ा अटकाते हैं और एक सत्य यह भी है कि परेशानी चाहे कितनी भी बड़ी हो बातचीत के द्वारा हर समस्या का समाधान निकाला जा सकता है।
आरएसएस के मंच से प्रणब दा ने सरकार को भी यह संदेश दिया कि सरकार लोगों के लिए, लोगों की होनी चाहिये, जिसका लक्ष्य शान्ती और नीति निर्धारण होना चाहिये। क्योंकि हमारा देश “वसुदेव कुटुम्बकम” के मूल मंत्र पर चलता है और सरकार की नीति “सर्वे सुखिनः भवन्तु …सर्वे संतु निरामय” की होनी चाहिये और देश की सर्वांगीण विकास के लिए सरकार को तत्पर रहना चाहिये। नेहरू, गांधी, पटेल सबको याद करते हुए प्रणब दा ने अपने लंबे राजनैतिक अनुभव का ना सिर्फ परिचय दिया बल्कि जीवन भर जिस विचारधारा का विरोध किया उनके साथ मंच साझा करते हुए उन्हें पूरा सम्मान भी दिया और इन तमाम बातों को समझने के बाद हमें कहना पड़ा “सही खेल गये दादा”।