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ट्रेलर रिव्यू: धड़क कभी सैराट नहीं बन सकती

करीब साल भर पहले जब खबर आयी थी कि नागराज मंजुले की मराठी फिल्म “सैराट” के हिंदी रीमेक के राइट्स करण जौहर ने खरीदे हैं तभी मन में आशंका घर कर गयी थी कि इसके हिंदी रीमेक के साथ न्याय नहीं हो पायेगा। आज जब “सैराट” के हिंदी रीमेक “धड़क” का ट्रेलर आया तो कोशिश की कि खुद को पूर्वाग्रहों से बचा के देखूं।

हिंदी रीमेक में बदलाव यह है कि फिल्म महाराष्ट्र की जगह राजस्थान के किसी गाँव या कस्बे की पृष्ठभूमि पर बनी है। जो आशंकाएं इस फिल्म के अनाउन्स होने पर बनी थी, ये ट्रेलर देख के उनको और बल मिला है।

सैराट ना सिर्फ एक कमर्शियल सक्सेस थी बल्कि ये हिंदुस्तान के सिनेमा के इतिहास में अपनी कहानी की वजह से एक अहम मील का पत्थर बनी थी। नागराज मंजुले की इस फिल्म की खासियत थी कि ये जातिवाद, दलितों के साथ होने वाले भेदभाव और अन्तर्जातीय संबंधों की वजह से होने वाली हॉनर किलिंग पर एक ईमानदार एवं सशक्त टिप्पणी थी। जाति और दलित विमर्श इस फिल्म की खासियत थी।

धड़क के ट्रेलर के हिसाब से देखा जाए तो इसमें काफी हद तक जातिवाद और दलितों के खिलाफ होने वाले भेदभाव से बचने की कोशिश नज़र आयी है। बॉलीवुड का जाति व्यवस्था पर संवाद स्थापित करने से कन्नी काटना कोई नई बात नहीं है। जातिगत अवरोधों को सिर्फ वर्ग के भेदभाव के पीछे ढकना हिंदी सिनेमा के परंपरा का एक हिस्सा रहा है और मुमकिन है कि “धड़क” भी उसी मुख्यधारा की परंपरा में शामिल होगा।

इसके अलावा अगर ‘सैराट’ और ‘धड़क’ की सिनेमाई तुलना की जाए तो भी मूल फिल्म की तुलना में धड़क काफी कृत्रिम और एक टिपिकल बॉलीवुडिया किस्म की फिल्म लग रही है। जहां सैराट में एक सच्चाई और खरापन दिखा था वहीं धड़क में चीज़ों को तड़क-भड़क के साथ और ग्लैमराइज़ कर के परोसा गया है। डर है कि इस चकाचौंध में फिल्म असली मुद्दे और अपनी आत्मा से ही दूर न चले जायें।

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